________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
२८७
अर्थात् पूर्णानन्द का नाथ प्रभु अपना आश्रय लेकर पराश्रय अज्ञान और राग-द्वेष का अभाव करे, उसे जैन कहा जाता है। यह तो वस्तु की स्थिति है, इसमें परमेश्वर ने कोई नया धर्म नहीं किया। इतने ही ऐसा कहते हैं कि भगवान ने तो सबके अनेकान्तनय लेकर धर्म कहा, ऐसा होगा?
मुमुक्षु - सबका समन्वय करते हैं।
उत्तर – धूल भी नहीं किया। वस्तु ऐसी है। सबके नय लेकर अनेकान्त मार्ग सब इकट्ठा करके, कहा? भगवान के ज्ञान में पहले से नहीं आया कि ऐसा आत्मा पूर्णानन्द अखण्ड अभेद है और दूसरों के नय इकट्ठे करके कहा। ऐसे के ऐसे... समझ में आया?
आत्मा एक समय में पूर्ण अखण्ड आनन्दकन्द ध्रुवस्वभाव अनन्त गुण का पिण्ड है। पर्याय का परिणमन, द्रव्य का ध्रुवपना – ऐसा उसका स्वरूप ही है। ऐसा स्वरूप भगवान ने तो पूर्व में सम्यग्दर्शन, ज्ञान में जाना था। जन्मे तब तो तीन ज्ञान लेकर आये थे, फिर जगत के नय इकट्ठे करके कहा - ऐसा कहाँ था? आहा...हा...! कितने ही पण्डित इस पुस्तक में लिखते हैं, बहुत मतों के नय थे, उन्हें भगवान ने इकट्ठा किया। अरे...! भगवान! तू क्या कहता है ?
ममक्ष - समन्वय करने को। उत्तर – किसके साथ समन्वय होगा? धूल के साथ?
यह तो अखण्ड प्रभु एक समय में अनन्त गुण का पिण्ड.... अनन्त गुण वे कितने? आकाश के प्रदेश से अनन्त गुणे... लाओ तो सही बात। ऐसा न हो तो यह चीज ही न हो। महा पदार्थ, महा प्रभु, असंख्य प्रदेश में अनन्त-अनन्त गुण व्याप्त हैं। स्वभाव की मूर्ति उसे क्या कहना! अरूपी स्वभाव का दल-पिण्ड, चित्पिण्ड, चित्घन, आनन्दघन, ज्ञानघन – ऐसा शास्त्र में कहा है न? विज्ञानघन... आहा...हा...! ऐसा भगवान जिसमें आकाश के प्रदेश के अमाप... अमाप... अमाप... फिर कहाँ माप? ऐसे अमाप का अन्त नहीं, उसके प्रदेशों की संख्या से ही भगवान असंख्य प्रदेश में रहा, (आकाश के प्रदेशों से) अनन्त-अनन्त गुणे गुण उसमें है, उसे आत्मा कहते हैं। समझ में आया? ऐसे अनन्त... अनन्त... अनन्त... गुणों का जहाँ आश्रय लिया,