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गाथा - ९३
कुछ राग बाकी रह गया, उसे व्यवहार कहते हैं । अकेला पराश्रयभाव हो, उसे मिथ्यादृष्टि और अधर्म कहते हैं, और अकेला स्वाश्रय पूर्ण प्रगट हो गया, वह केवलज्ञानी हो गया और स्व आश्रय की दृष्टि, ज्ञान से आश्रय शुरु हुआ है परन्तु पूर्ण स्व आश्रय अभी नहीं हुआ, उसमें शुभ रागादिक पराश्रय अभी बाकी रह गया, उसे व्यवहार कहते हैं । वस्तु की यह स्थिति है। समझ में आया ? अब उसे कहते हैं कि अभी व्यवहारमोक्षमार्ग कहो, अभी निश्चय नहीं, निश्चय तो आठवें गुणस्थान से आएगा... अरे भगवान !
मुमुक्षु - गुणस्थान तो पहला छोड़ना पड़ेगा।
उत्तर - गुणस्थान किसका छोड़ेगा ? व्यवहार की दृष्टिवाले को तीन काल में गुणस्थान बदलता ही नहीं। समझ में आया ?
इसलिए यहाँ कहते हैं कि निश्चयनय त्रिकाल शुद्धात्मा का दर्शन कराता है । अभेद, अभेद... भेद है, वह तो विकल्प है। विकल्प से धर्म की शुरुआत होती है ? समझ में आया? फिर बहुत लम्बी बात की है । निश्चय धर्म को उपादान साधन और व्यवहार को निमित्त साधन जानना । भगवान आत्मा...! अरे...! अपने स्वरूप का आश्रय होना, यह तो कोई बात है ! अनन्त काल में इसने आश्रय लिया ही नहीं, स्वयं अनन्त काल से बाहर ही धक्के मारे हैं, बहिर्बुद्धि, उसका नाम बहिर्बुद्धि है, इसका नाम ही बहिरात्मा है, इसका नाम बहिरात्मा है । अन्तरात्मा ज्ञानस्वरूप में दृष्टि देने से अभी परमात्मा भले ही नहीं हुआ परन्तु परमात्मा मेरा स्वरूप है। ऐसी दृष्टि हुई, वहाँ अन्तरात्मा हुआ। समझ में आया ? और मैं पुण्य तथा पाप और राग व दया, दान, व्रतवाला हूँ, वह तो अभी मिथ्यादृष्टि है, अधर्मी, अज्ञानी है । वह तो बहिर्बुद्धि, बहिरात्मा है । बहर (अर्थात्) जिसके स्वभाव में नहीं - ऐसे विकल्प को अपना स्वरूप मानकर वहाँ अटका है, वह तो बहिरात्मा है । आहा... हा... ! सीधी बात है। भगवान सीधा सरल चिदानन्द पड़ा है। सत् सरल है, सत् सर्वत्र है, सत् सुगम है परन्तु इसने उसे दुर्लभ कर डाला है उसकी बात सुनना इसे (नहीं रुचती है) । निश्चय नहीं... निश्चय नहीं... निश्चय नहीं.... निश्चय अर्थात् सत्य नहीं; व्यवहार अर्थात् आरोपित, वह सच्चा... आहा... हा...!
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यह जैन कोई सम्प्रदाय नहीं, यह वस्तु का स्वरूप ऐसा है। समझ में आया ? जैन