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गाथा - ९३
'यशोविजय' ऐसा कि व्यवहार से धर्म कहता है, वह तो मूढ़ है। उन्हें ऐसा लगा कि अरे ! हमारे यशोविजय को मूढ़ कहते हैं। ऐसा आया था। बाहर से आया था।
४१३ में है, देखो! जो वास्तव में' श्रमण हूँ, मैं श्रमणोपासक हूँ' व्यवहारलिंग, व्यवहारव्रतादि में मानते हैं वे मिथ्यात्व अहंकार कर रहे हैं, वे अनादिरूढ़ (अनादि काल से चले आये ) व्यवहार में मूढ़.... ज्ञानी हैं, वे व्यवहार में मूढ़ नहीं हैं, व्यवहार के ज्ञाता हैं। समझ में आया ? जाना हुआ प्रयोजनवान है, यह बारहवीं गाथा है । यह सब एक ही शैली रची है । वस्तु की स्थिति (ऐसी की) निश्चय का भान हुआ, तब राग बाकी रह गया, शुद्धता अल्प है, उसका ज्ञान करना वह व्यवहार है परन्तु ऐसा निश्चय हो तब व्यवहार (कहलाये) न ? वरना यहाँ आचार्य महाराज कहते हैं कि व्यवहारमूढ़ है, अकेली मन्दराग की क्रिया को तू धर्म की शुरुआत कहना चाहे और धर्म है ( - ऐसा कहे ) तो अनादिरूढ़ भाव, यह तो अनादि से चला आया है । मन्द - तीव्र.... मन्द - तीव्र .... मन्द - तीव्र .... अनादि का है, उसमें तू मन्द को, व्यवहार करनेवाला जगे बिना उसे व्यवहार कहेगा कौन? अनादिरूढ़ व्यवहार में मूढ़... उसे मूढ़ कहा है। ज्ञानी को व्यवहार में मूढ़ नहीं कहा, व्यवहार का जाननेवाला कहा है। चैतन्य शुद्ध भगवान आत्मा का भान हुआ, (तब) व्यवहार देव-शास्त्र - गुरु की भक्ति, पूजा - ऐसा भाव होता है, उसे जानता है, वह मूढ़ नहीं है और यह जो अकेला व्यवहार है, निश्चय के भान बिना, उसे मूढ़ कहा है। क्यों ? कि प्रौढ़ विवेकवाले निश्चय ( निश्चयनय) पर अनारूढ़ .... राग से, व्यवहार से भिन्न कराकर आत्मा की दृष्टि और आश्रय करना - ऐसा प्रौढ़ निश्चय विवेक अनारूढ़ है। निश्चय में अनारूढ़ है, (वैसे) व्यवहार को व्यवहार का ज्ञान करनेवाला जगे बिना व्यवहार नहीं कहा जाता । ४१३ में ऐसा कहते हैं ।
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अब यह कहता है अकेला व्यवहार करो, व्यवहार करो - ऐसा बड़ा लेख दिया है । ठीक! (ऐसा लेख है कि ) दो मत है परन्तु सच्चा मत किसका ? लो, ठीक ! सच्चा मत यह ‘रतनचन्दजी' का। वे कहते हैं किसी दूसरे का नहीं, अभी के किसी पण्डित का भी नहीं, यह आचार्य इतना कहते हैं उनका भी नहीं, दो मत हैं। एक कहते हैं कि आत्मा में देव है दूसरा कहता है कि भगवान में देव है। तब रतनचन्दजी कहते हैं, भगवान के मन्दिर