________________
गाथा - ९३
सन्मुख दृष्टि हुई, वहाँ धर्मध्यान हुआ। पहले अधर्मध्यान था, वह स्वभावसन्मुख की दृष्टि ज्ञान होने से धर्मध्यान हुआ । यह लोग कहते हैं, धर्मध्यान अर्थात् शुभभाव, वह नहीं । स्वभावसन्मुख की जितनी एकता हुई उसे धर्मध्यान कहते हैं । उग्ररूप से एकता को शुक्लध्यान कहते हैं । कहो, समझ में आया ?
२८२
आज बड़ा लेख आया है। यह दो मत हैं। कितने ही कहते हैं कि निश्चय धर्म है तो कितने ही कहते हैं व्यवहार धर्म है। बहुत आधार दिये हैं । यह पंचास्तिकाय में ऐसा कहा है कि तीर्थंकर की रुचि करे, उनके आगम की रुचि करे तो पुण्य बाँधे, मोक्ष नहीं होता । पण्डितजी ! पीछे आता है न ? पंचास्तिकाय में पीछे (आता है)। ऐसे-ऐसे बोल भी डाले हैं और परमात्मप्रकाश में, योगसार में ऐसा लिखा है कि तीर्थधाम मन्दिर में देव नहीं, देव तो यहाँ (देह-देवल में ) है । 'मूर्ख भ्रमे बहु स्थान' यह तो निश्चय की बात हुई, अब इसका करना क्या ? ऐसे निश्चय के बहुत बोल रखे हैं तो अब उसमें सच्चा मत किसका ? निश्चय के इतने धर्म हैं (ऐसा लिखा है)। 'जैनदर्शन' (तात्कालिक समाचार पत्रिका) आता है न ? कोई इन्दौर का दौलतराम है न ? इन्दौर में कोई दौलतराम है ? दिगम्बर है ? ऐसा ! बहुत में लिखता है । निश्चय के तो ऐसे बोल आते हैं ।
कर्म का क्षय, आत्मा के ध्यान से कर्म टूटते हैं, कर्म तड़तड़ होते हैं और परमात्मप्रकाश शिष्य पूछता है कि महाराज ! दूसरी सब बातें छोड़ दो, हमारे कर्म कैसे टूटे और आत्मा कैसे प्राप्त हो ? - वह उपदेश दो । अब ऐसी बात आवे तब परमात्मप्रकाश में, समाधिशतक में - दूसरे को उपदेश देना भी उन्माद है, दूसरे को समझाऊँ यह उन्माद है, ऐसा सब रखा है। तो अब क्या करना अभी ? इसलिए अभी अपने रतनचन्दजी मुख्तार कहते हैं ऐसा करना कि अभी निश्चय मोक्षमार्ग नहीं है... पण्डितजी ! अभी व्यवहार उपदेश देना क्योंकि पंचम काल में निश्चय मोक्षमार्ग नहीं होता, क्षपक श्रेणी चढ़े, तब (होता है) इसलिए अभी व्यवहार कहना । मन्दिर बनाओ, दर्शन करो, व्रत करो, यह व्यवहार करो.... बड़ा लेख आया है । सच्चा कौन ? दो में से सच्चा कौन ?
लिखा है ‘दौलतराम' मित्र, जूना पीठा, इन्दौर.... शास्त्री उपदेश के विषय में दो प्रकार के लोकमत । सच्ची धारणा कौन सी ? सच्ची धारणा यह कि वर्तमान व्यवहार का