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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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सच्चे सुख का भोग सम्यग्दृष्टि को भले प्रकार आत्मा के सन्मुख होने से होता है। आत्मा आनन्द और शान्त... शान्त शब्द से चारित्र (और) आनन्द शब्द से सुख - ऐसा शान्त और आनन्दस्वरूप का प्रभु पिण्ड, उसकी दृष्टि सम्यक् और रुचि - परिणति तथा ज्ञान होने से उसे निर्जरा अधिक है, इससे आत्मा के अनुभव का भोग अधिक है। ज्ञानचेतना का भोग अधिक है । मिथ्यादृष्टि में अकेले राग-द्वेष की कर्मचेतना और हर्ष -शोक के वेदन की अकेली दशा थी, वह बाधकदशा थी । मिथ्यादृष्टि को धर्म का साधकपना वहाँ नहीं होता । अब जहाँ साधकपना प्रगट हुआ, वहाँ भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप की आत्मा की दृष्टि का, आत्मसन्मुख का आनन्द का भोग आंशिक प्रगट हुआ, वहाँ निर्जरा बढ़ी और आस्रव घटा। कुछ समझ में आया ? इस कारण उसे साधकपना प्रगट हुआ। बिल्कुल आस्रव न हो और अकेली शुद्धि प्रगट हो जाये, वह तो अरहन्तदशा हुई। अकेला आस्रवभाव आवे और बिल्कुल धर्म-सन्मुख साधन नहीं, वह अधर्मदशा (हुई)।
अब, साधक की मिश्रदशा ( हुई) । जहाँ आत्मा शुद्ध चैतन्य की, आनन्द की लालच लगी है। आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द अधिक है, वह जगत् के किसी भी सुख में नहीं है – ऐसी दृष्टि जहाँ आत्मा के आनन्द की सम्यग्दृष्टि हुई, उसे आस्रव थोड़ा और निर्जरा बहुत (होती है)। कर्मचेतना थोड़ी, कर्मफलचेतना थोड़ी, और ज्ञानचेतना अधिक - ऐसी साधकदशा को धर्मदशा कहा जाता है । आहा... हा... ! समझ में आया ?
इस सच्चे सुख का भोग सम्यग्दृष्टि को आत्मा के सन्मुख होने से होता है । इन्द्रियों का सुख, इन्द्र का सुख, भोग का सुख यह सब रागवाला आकुलता का सुख, दुःख है। वह तो मूढ़दृष्टि के कारण चैतन्य के आनन्द के स्वाद के बेभान के कारण वह सुख - कल्पना, इन्द्र का और चक्रवर्ती के भोग में सुखबुद्धि है, वह मिथ्यादृष्टि की बुद्धि है । समझ में आया ? धर्मी की दृष्टि में सुखबुद्धि आत्मा में है, इस कारण आत्मसन्मुख की दृष्टि में उसे आत्मा का भोग विशेष हो गया है; इस कारण आत्मध्यान ही मोक्षमार्ग है। आहा... हा...! अकेला राग-द्वेष और पुण्य-पाप का ध्यान तो अधर्मध्यान है; अधर्मध्यान है। जबकि भगवान आत्मा शुद्ध स्वरूप, उसकी पुण्य - पाप की रुचि छोड़कर, चैतन्यतत्त्व
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