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गाथा-९३
में शुद्धपने के भान की दृष्टि में जब तक उसे स्थिरता पूर्ण न हो तो अस्थिरता का आस्रव थोड़ा आता है, आस्रव थोड़ा आवे और निर्जरा बढ़ जाए – ऐसे साधक जीव को धर्म होता है। समझ में आया? आस्रव थोड़ा हो जाए, क्योंकि आत्मा की दृष्टि, शुद्ध रुचि हुई और स्वरूप में किसी भी स्वाद की अधिकता हई. इतना निर्जरा का भाव बढ़ गया: इसलिए उसे
हुई, इतना निर्जरा का भाव बढ़ गया; इसलिए उसे मिथ्यात्व का आस्रव तो घट गया, थोड़ा अव्रत या कषाय का थोड़ा भाग बाकी रहे तो आस्रव थोड़ा और निर्जरा अधिक (होती है)। समझ में आया?
___ आस्रव थोड़ा और निर्जरा अधिक... यह व्याख्या... अकेला जहाँ मिथ्यात्वभाव, अव्रत, प्रमाद अकेला आस्रवभाव है, वहाँ तो अकेला बन्धभाव, अधर्मभाव है परन्तु जब आत्मा शुद्ध आनन्द और शान्तस्वरूप आत्मा में आनन्द है – ऐसी रुचि से आकर्षित हुआ, इस कारण उसमें बारम्बार झुकाव करके स्वाद के अनुभव में वृद्धि करे इतनी उसे निर्जरा बढ़ी और उसे आस्रव थोड़ा हुआ। आस्रव थोड़ा और निर्जरा अधिक, इसका नाम साधक जीव की दशा है। अकेला आस्रव वह मिथ्यादृष्टि की दशा (है); बिलकुल आस्रव नहीं और पूर्ण निर्मलता, यह अरहन्त की दशा है। समझ में आया?
कहते हैं, अन्तिम लाईन है, बीच में सब छोड़ दिया। जब आस्रव – कर्म आने के कारण घटे, क्योंकि कर्मरहित आत्मा और पुण्य-पाप के विकार के भावरहित आत्मा - ऐसे आत्मा का आश्रय लेकर और दर्शन-ज्ञान तथा शुद्धि प्रगट हुई तो निर्जरा बढ़ गयी। समझ में आया? और मिथ्यात्व का आस्रव मिट गया। कदाचित् चौथे गुणस्थान में हो तो भी अव्रत, प्रमाद, कषाय का आस्रव निर्जरा की अपेक्षा आस्रव थोड़ा है। समझ में आया?
सच्चे सुख का भोग सम्यग्दृष्टि को भले प्रकार आत्मा के सन्मुख होने से होता है। सच्चे सुख का भोग आत्मा के सन्मुख होने से होता है। विकार, हर्ष-शोक, शुभ -अशुभभाव का अकेला अनुभव अथवा कर्मचेतना का अकेला अनुभव और कर्मफलचेतना का अकेला अनुभव, वह अधर्मदशा है और आत्मा चैतन्य ज्ञायकस्वरूप के सन्मुख की रुचि-दृष्टि, ज्ञान हुआ, उसे ज्ञानचेतना जगी अर्थात् उसे कर्मचेतना और कर्मफलचेतना बहुत अल्प रही और वस्तु के स्वभावसन्मुख में आत्मा के आनन्द सन्मुख में आनन्द (बढ़ गया)। क्या कहा?