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वीर संवत २४९२, आषाढ़ शुक्ल २, गाथा ९३ से ९४
बुधवार, दिनाङ्क २०-०७-१९६६ प्रवचन नं. ३९
जो समसुक्ख णिलीणु बुहु पुण पुण अप्पु मुणेइ । कम्मक्खउ करि सो वि फुडु लहु णिव्वाणु लहेइ ॥ ९३ ॥
यहाँ तो आत्मा अपने आनन्दस्वभाव को जानकर बारम्बार आनन्द का अनुभव करता है, वह कर्म का क्षय करके निर्वाण प्राप्त करता है - इतने भाव रखे हैं। समझ में आया? कल थोड़ी बात अन्तिम आ गयी थी । जैसे शक्कर खाने से मीठेपन का स्वाद आता है, नीम खाने से कड़वेपन का स्वाद आता है और नमक खाने से खारेपन का स्वाद आता है; इसी प्रकार आत्मा अतीन्द्रिय शान्तस्वरूप की दृष्टि और अनुभव करने से आत्मा के आनन्द का स्वाद आवे, तब से उसे निर्जरा शुरु होती है । कहो, समझ में आया ?
किसी भी पदार्थ का स्वभाव हो, उस स्वभाव का उसे अनुभव - स्वाद आये न ? ऐसे ही आत्मपदार्थ है, वस्तु है, उसमें उसका अतीन्द्रिय आनन्द और अतीन्द्रिय शान्तरस स्वभाव है। चारित्र और आनन्द ऐसे दो लिए समझ में आया ? उसके स्वभाव की रुचि और सन्मुखता होकर उसका ज्ञान (होता है) और उस स्वभाव की रुचि का परिणमन होना, उसका अनुभव (होना) उस अनुभव में चैतन्य के आनन्द का स्वाद आये बिना नहीं रहता। स्वाद आये उसे अनुभव धर्म कहते हैं, उसे मोक्ष का मार्ग कहते हैं, उसे कर्म की निर्जरा कहते हैं । कहो, इसमें समझ में आया ?
इसी प्रकार आत्मा के शुद्धस्वभाव में रमणता करने से आत्मानन्द का स्वाद आता है। उस समय कर्म की स्थिति घटती है - ऐसी सब बात की है। जब आस्रव कम और निर्जरा अधिक हो, तब मोक्षमार्ग का साधन होता है। क्या कहते हैं ? जब आत्मा