________________
गाथा - ९३
मिलाते हैं। वह चक्रवृत्ती ब्याज कहलाता है, वहाँ धूल में यह चक्रवृत्ती ब्याज निकालता है। कामदार! वहाँ कामदारपना निकालता है । है ? कहते हैं बापू ! इसमें तो थोड़ा कामदार हो ।
२७८
तेरे स्वरूप में बापू! आनन्द है । जैसे पर के स्वाद में तुझे ज्ञान होता है, ज्ञान होता है कि यह कड़वा है । वह आत्मा कड़वा होकर कड़वे को नहीं जानता; कड़वा तो जड़ है, कड़वा होकर कड़वे को जाने तो आत्मा जड़ हो जाएगा। मीठा होकर आत्मा मीठे को जाने तो आत्मा जड़ हो जाएगा। नमक का खारा स्वाद, वह खारा होकर खारे को जाने तो आत्मा खारा-जड़ हो जाएगा। उसे जानने से ख्याल में आता है कि यह कड़वा है, खारा है, बस इतना ! इसी प्रकार भगवान आत्मा को जानने से उसमें वह भिन्न होकर जानता है । आत्मा अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप को एकमेक अभेद होकर आत्मा को जाने, पूर्व के तीन दृष्टान्तों में से इतना अन्तर है। समझ में आया ? यह खारा मुँह नहीं कहते ? खारा मुँह हो गया, चरपरा मुँह हो गया, तो क्या आत्मा चरपरा होता होगा ? चरपरी अवस्था तो जड़ की, मिट्टी - धूल की है। आत्मा जड़रूप होगा ? वह तो ज्ञान जानता है कि यह चरपरा है, इतना । चरपरे को भिन्न रखकर जानता है । इसी प्रकार भगवान आत्मा अपने आनन्द को भिन्न रखकर जानता है - ऐसा नहीं है। आनन्द को भिन्न रखकर विकार का वेदन करता है, वह अनादि का मूढ़ है । आत्मा के आनन्द को भिन्न रखकर विकार का वेदन करता है, वह मूढ़ है, मिथ्यादृष्टि है। उससे रहित आत्मा के आनन्द में एकाकार होकर आनन्द का वेदन करे, उसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और धर्म कहा जाता है। उसे संवर, निर्जरा और मोक्ष का उपाय कहा जाता है।
( श्रोता - प्रमाण वचन गुरुदेव)
Sty