________________
योगसार प्रवचन (भाग - २)
२७१
=
कहते हैं और चैतन्यमूर्ति उसमें अटका, इसलिए उसे बन्ध कहते हैं। समझ में आया ? उसे विषम सुख कहते हैं । विषम सुख अर्थात् दुःख । पुण्य-पाप का भाव, वह विषम अर्थात् सम से विरुद्ध वह दुःख । उस पुण्य-पाप, आस्रवभाव के राग से हटकर भगवान आत्मा के आनन्द के वेदन में आया, तब आत्मा का भान हुआ, वह आत्मा और शान्ति का अरागी समसुख का वेदन हुआ उसे संवर और निर्जरा कहा जाता है । उस समसुख से निर्जरा होते-होते समसुख की जहाँ शुद्धि बढ़ गयी (और) पूर्णता हो, उसे भगवान मोक्ष कहते हैं । कामदार! यह कभी सुना भी नहीं होगा। लोग नहीं समझते, इसलिए तत्त्व से क्या कहते हैं ? वह सुनते नहीं, समझते नहीं (तो) बन्द करा दिया, नहीं, मानूँगा.... परन्तु पहले सुन तो सही, क्या है ? समझ में आया ?
सर्वज्ञ ने न्याय से, लॉजिक से, युक्ति से मार्ग सिद्ध किया है । अनन्त परमेश्वर हो गये, भगवान महाविदेहक्षेत्र में विराजमान हैं, गणधर विराजमान हैं, सन्त विराजते हैं, लाखों मुनि विराजमान हैं... वर्तमान विदेहक्षेत्र में, हाँ ! इन्द्र ऊपर से भगवान के समवसरण में अभी आते हैं। किसी को करोड़ पूर्व का जिसका आयुष्य है। मुनि सुव्रतभगवान के समय से जिन्होंने दीक्षा ली है, अभी केवलज्ञानरूप से विराजमान हैं। आगामी चौबीसी में बारहवें और तेरहवें तीर्थंकर यहाँ होंगे, तब वहाँ मोक्ष पधारेंगे। इतनी उनकी -- भगवान सीमन्धर प्रभु की दीर्घ आयु है । कल्याणजीभाई ! यह सब वहाँ के सेठिया, उनका पत्ता निकल जाता है I
भगवान के श्रीमुख में से ऐसी वाणी आयी है और सन्त - ज्ञानी वह बात करते हैं । भाई ! 'फुडु कम्मखउ करि' आत्मा में शान्ति का, अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप का जितना वेदन करे, अनुभव करे... 'अनुभव चिन्तामणि रत्न और अनुभव है रसकूप, अनुभव मारग मोक्ष का अनुभव मोक्ष स्वरूप' इस आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द का अनुभव करना, शान्ति का वेदन करना, उसे भगवान मोक्ष का मार्ग कहते हैं । जितने पुण्य और पाप के भाव उत्पन्न होते हैं, वे सभी बन्ध के कारण और दुःखरूप हैं। आहा... हा... ! समझ में आया? कहो, पाटनीजी ! इसमें कहीं तर्क का अवकाश तो नहीं परन्तु भाषा में कभी इसने..... मनुष्यपने में निर्णय करने का अवसर मुश्किल से मिला, उसे खो बैठा। जाओ !