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गाथा-९३
मरकर हैरान होकर, अनन्त काल से ऐसे के ऐसे वर्ष बिताये, अनन्त भव गये... ऐसा मनुष्यपना अनन्त काल में कठिनता से मिला, चींटी, कौआ, कुत्ता, हाथी, नरक में निगोद में से निकलते-निकलते कठिनाई से यहाँ आया है। उसमें भी जब तक इस आत्मा का भान नहीं करे तो उसकी इस दशा में परिभ्रमण करता है। आहा...हा...!
एक बात – समसुख में ऐसा शब्द लिया कि आत्मा आनन्दमूर्ति, वह वीतरागी सुख का कन्द है, उसे आत्मा कहते हैं। उसकी अन्तर्दृष्टि करके आनन्द का ज्ञान करे और आनन्द का अनुभव करे – ऐसी दशा को संवर और निर्जरा कहते हैं । उस संवर-निर्जरा में पुण्य और पाप तथा आस्रव मलिन तत्त्व से रहित हुआ, वे मुझमें नहीं, उसे पुण्य-पाप
और आस्रव का ज्ञान हुआ कि वे मलिन हैं, मुझमें नहीं हैं और वे बन्ध का भाव है। शुभ -अशभ विकारभाव, वह बन्धभाव है। यह पुण्य-पाप, आस्रव-बन्ध चार तत्त्व हो गये। शरीर, कर्म अजीवतत्त्व है। भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द की समसुख की मूर्ति है, वह जीव है। उसमें सम्यग्दर्शन का / अनुभव का भान होने पर यह आत्मा आनन्दमूर्ति, उसका वेदन और शान्ति का वेदन होने पर उसे संवर और निर्जरा कहा जाता है। वह वेदन बढ़ते-बढ़ते 'लहु णिव्वाणु' अल्प काल में पूर्ण आनन्दरूपी मुक्ति को प्राप्त करता है। यह नव तत्त्व हो गये। अभी नव तत्त्व का पता न हो, किसे कहना? आँकड़ा / नाम का भी पता न हो और भाव का तो कहाँ पता होगा? इसमें समझ में आया? रतिभाई!
समसुख शब्द पड़ा है न, उसके सामने एक विषमसुख है । वह विषम सुख क्या? वस्तु दुःखरूप, यह वस्तु की बात नहीं। वस्तु तो घर में रह गयी, यह शरीर-वरीर, वह तो मिट्टी-धूल है, वह तो जड़ है-पर है, यह पैसा-वैसा धूल पर है, वह कहाँ आत्मा में किसी दिन स्पर्शित होती है? वह तो मिट्टी-धूल है। भगवान तो अरूपी है, आत्मा तो रूप रंग, गन्ध-स्पर्शरहित चीज है । वह तो स्पर्शवाली, गन्धवाली, जड़, मिट्टी, धूल है, इसलिए वह अजीवतत्त्व है, शरीर, कर्म और बाह्य स्त्री, पुत्र का दल यह सब दिखता है, वह सब अजीव। अन्दर आत्मा है, वह जीव अलग वस्तु है। उनके लक्ष्य से हुए पुण्य-पाप के भाव, शुभ-अशुभभाव, वह पुण्य-पाप आस्रव और बन्ध यह चार तत्त्व एक में समाहित हो जाते हैं । दया, दान, व्रत, भक्ति का विकल्प उत्पन्न होता है, वह पुण्य है, उसे आस्रव