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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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अस्पताल में दूसरा पागल दूसरे पागल को कहता है कि यह चतुर लगता है। कल्याणजी भाई ! ऐसा है न? भाई! यह तो मैंने कहा, वे कहते हैं ये सुखी लगता है। किसी के पास पाँच लाख की पूँजी हो या दो करोड़ की पूँजी हो... पूनमचन्द को लोग कहते हैं कि यह सुखी है। धूल में भी नहीं... कौन कहता था? दुःख है वहाँ क्या है? धूल है? राख है वहाँ। आत्मा के साथ बैठना मिले, वह आनन्द है। यहाँ तो परमात्मा ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षु : समाचार पत्र में तो आता है।
उत्तर : उसमें छाप कहाँ पड़ी? दु:खी की छाप पड़ी। लाखों लोगों को पता पड़े, चीटियों को बहुत पता पड़े तो मनुष्य चींटी हो गया।
यहाँ कहते हैं कि निर्वाण का उपाय... है न? पहले गाथा का अर्थ ले लें – 'जो समसुक्ख णिलीणु बुहु', 'पुण पुण अप्पु मुणेइ' 'अप्पु' अर्थात् आत्मा। बारम्बार आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द की पहले दृष्टि की है, इसलिए उस आनन्द में ललचाया है। सम्यग्दृष्टि आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द है – ऐसा सम्यग्दर्शन होने पर ललचाया है। यहाँ आनन्द है, यहाँ आनन्द है, यहाँ आनन्द है। भगवान कहते हैं कि उस आनन्द का बारम्बार जो अनुभव करता है, 'सो फुडु कम्मखउ करि सहु णिव्वाणु' वह प्रगट रूप से कर्मों का क्षय करके.... वह कर्म का क्षय करता है। आत्मा के आनन्द का अनुभव करे, वह कर्मों का क्षय करता है। समझ में आया? और 'लहु' अल्प काल में निर्वाण को पाता है।
एक गाथा में तो बहुत तत्त्व समा दिये हैं। भगवान आत्मा उसे कहते हैं कि जो अतीन्द्रिय आनन्द की मूर्ति है – एक तत्त्व। यह कर्म शरीर व अजीवतत्त्व, (२) अन्दर पुण्य-पाप के भाव होते हैं, वह आस्रवतत्त्व, दो और दो चार हो गये। आत्मा आनन्दमय, आस्रव और पुण्य-पाप ये तीन हो गये। यह कर्म, शरीर अजीव; भगवान आनन्दमूर्ति, वह आत्मा; उसकी दृष्टि और अनुभव करना, वह संवर और निर्जरा तथा वह संवर-निर्जरा उत्कृष्ट हो जाये, तब मोक्ष होता है, उसका नाम पूर्णानन्द की प्राप्ति है। ये नव तत्त्व इसमें आ गये हैं। है ? नजर से नौ दिखते हैं, ज्ञान में नौ ज्ञात होते हैं।
अरे...! भगवान! परन्तु इसने कभी अन्तर का मार्ग वीतराग ने क्या कहा? यह सुनने को नहीं मिला, वह समझे कब? रुचि कब करे? और अनुभव कब करे? सिरपच्ची,