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गाथा-९३
फीकापन लगने से धर्मी को आत्मा की डली, शक्कर की डली में स्वाद भासित होने से उसमें लीन होता है। आहा...हा...! समझ में आया? मेरा आनन्द मुझमें – अन्तर्मुख में है। यह शरीर, वाणी, जड़ तो अजीवतत्त्व है। पुण्य-पाप के शुभाशुभभाव होते हैं, वह तो आस्रवतत्त्व है। भगवान आत्मा उस आस्रव और अजीव से भिन्न तत्त्व है। इस प्रकार जिसे धर्म की पहली दृष्टि हुई है, वह धर्मी सम सुख में लीन होकर बारम्बार आत्मा का अनुभव करता है।
- ऐसा कहकर यह कहते हैं कि निर्वाण का उपाय कष्ट सहन नहीं है। भाई! नीचे अर्थ किया है न! मोक्ष का उपाय दुःख नहीं। अरे....! बहुत सहन करना पड़े, हाँ! यह तो तुझे दुःख लगा, दुःख लगे वह तो आर्तध्यान है; वह धर्म नहीं है। निर्वाण अर्थात् मोक्ष का उपाय कष्ट सहन करना नहीं है। कष्ट-दुःख सहन करना तो आर्तध्यान है। निर्वाण का उपाय अतीन्द्रिय आनन्द में शान्ति का वेदन करना, सम सुख – वह निर्वाण का उपाय है। आहा...हा...! कल्याणजीभाई! कभी सुना नहीं होगा। जयनारायण! वहाँ प्रमुख होकर मुखर हों, ऐसा करना... ऐसा करना.... ऐसा करना...।
मुमुक्षु : बुद्धिशाली मनुष्य कहलाते हैं।
उत्तर : परन्तु यह समझे बिना बुद्धि किसे कहना? कल्याणजीभाई! समझ में आया? रसिकभाई ! न्याय से – लॉजिक से समझ में आता है न? लॉजिक-न्याय है न? वीतराग का मार्ग न्याय से है। निरावयम् आता है न? पाँचवें... में आता है। निरावयम् न्याय से वीतराग सर्वज्ञ कहते हैं । निरावयम्.... न्याय से वीतराग देव कहते हैं कि यह आत्मा अनादि काल से अपने आनन्द को भूलकर जितने पुण्य और पाप के भाव करता है, वह दुःख को वेदन करता है और दुःखी है। उसे धर्म नहीं परन्तु अधर्मी कहा जाता है। आहा...हा... ! मनसुखभाई ! फुरसत में कब (थे)? यहाँ आवे तो सुनने की फुरसत नहीं, वहाँ भी दुकान की टड़ामार-टड़ामार.... धूल में... धूल में... हैरान... हैरान... हैरान... दु:खी का डालिया बड़ा। कैसे होगा?
मुमुक्षु : ................ उत्तर : धूल में सुखी नहीं, कौन कहता है ? मूढ़ जीव कहता है। पागलों के