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गाथा - ९३
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उसे निगोद का शरीर मिला या वह मिला, दोनों में अन्तर है ? आलू, शकरकन्द शरीर मिला। एक शरीर में अनन्त जीव, वह मिला और यह मनुष्यपना मिला परन्तु जिसने आत्मा क्या चीज है ? उसकी दृष्टि कैसे करना, उसका भान नहीं तो उसे शरीर मिला और मनुष्य का शरीर (मिला), दोनों समान हैं, क्योंकि उसमें इसे कोई लाभ नहीं और इसे कोई लाभ नहीं । गोरडिया ! समझ में आया ? यह मुद्दे की रकम की बात है । लोग ऐसे होते हैं न कि पाँच लाख दिये हों, छह आना रूप से ब्याज (लेते हों, वह कहे) अब ब्याज नहीं, रोकड़ लाओ, ब्याज बीस वर्ष खाया, मूल पूँजी लाओ। पूँजी नहीं, तब किसलिए ब्याज दिया - इसी प्रकार यहाँ कहते हैं कि मूल पूँजी आत्मा के भान बिना तेरे पुण्य-पाप के परिणाम सभी पुण्य का ब्याज बाहर गया। समझ में आया ?
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भगवान आत्मा अपने स्वरूप का समसुख की शान्ति का वेदन करे । आहा....हा...! एक शब्द में तो कितना भर दिया है ! गृहस्थाश्रम में भरत चक्रवर्ती, छियानवें हजार रानियाँ... समझ में आता है । फिर भी उन्हें राग है परन्तु वह राग जरा अशुभ है, उससे आत्मा आनन्द है - इस प्रकार भिन्नता का भान है। यह नहीं रे, नहीं मेरा स्वाद अन्तर में है। इस छह खण्ड के राज्य में पड़ा होने पर भी आनन्द को नहीं भूलता । आहा...हा... ! समझ में आया ? नट डोरी पर नाचता हो, नाचता हो परन्तु उसका पैर कहाँ है ? वह नहीं भूलता, (भूले) तो नीचे गिर जाये । इसी प्रकार धर्मी जीव गृहस्थाश्रम में रहने पर भी छियानवें हजार स्त्रियाँ, पटरानी, रानियाँ उन्हें देवांगनाओं के समान होती हैं। जिनका शरीर भी सुन्दर.... इन्द्र तो जिनके मित्र हैं। भरत चक्रवर्ती को इन्द्र तो जिनके मित्र होते हैं, जिनका सिंहासन अकेले हीरा माणिक से जड़ा हुआ, जिसकी अभी किसी राजा 'एडवर्ड' के पास भी नहीं हो, इतनी कीमत तो उसके सिंहासन के पाये की होती है। समझ में आया? परन्तु अन्दर यह मेरा आत्मा आनन्द है न! अरे... ! आनन्द में कब जाऊँ ? क जाऊँ ? रुचि वहाँ लगी है। ऐसे पुण्य-पाप के भाव होने पर भी रुचि आत्मा के आनन्द में लगी है, उसे सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । आहा... हा... ! सम्यक् अर्थात् सच्ची दृष्टि । तो आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द है, उसकी रुचि और अनुभव हुआ, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। और उससे विरुद्ध पुण्य-पाप के भाव वह दुःखरूप हैं - उनका वेदन, वह मैं यह मिथ्यादृष्टि आत्मा, दुःख में आत्मा मानता है। समझ में आया ?