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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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छोटी पीपल का (दृष्टान्त दिया था ) । वह इतनी छोटी पीपल होती है न ? उसमें चौंसठ पहरी चरपराहट भरी हुई है अन्दर और अन्दर हरा रंग पड़ा हुआ है, वह घोंटने से होता है, वह कहीं पत्थर से नहीं होता। पत्थर से होता हो तो कोयले और कंकड़ घिसना चाहिए, रसिकभाई! यह लॉजिक से बात है या नहीं ? यह वकील है या नहीं थोड़ा ? यह तो लौकिक का वकील है, यह तो भगवान का लोकोत्तर वकील है ।
कहते है कि भाई ! उस पीपल का दाना इतना, काला, अन्दर हरा, जरा चरपरा दिखे, अन्दर चौंसठ पहरी है। चौंसठ अर्थात् रुपया, रुपया.... चरपराहट पड़ी है, उसे घोंटते घोंटते अन्दर में से आती है, प्राप्त की प्राप्ति है, हो उसमें से आती है, कुएँ में से बर्तन में (पानी) आता है, इसी प्रकार इस पीपल में चौंसठ पहरी अर्थात् रुपया - रुपया चरपराहट (भरी है) । यह तुम्हारी हिन्दी में चरपराहट कहते हैं, हमारे यहाँ काठियावाड़ में उसे तीखाश कहते हैं । वह तीखाश चौंसठ पहरी पड़ी है, हरा रंग पड़ा है तो पड़ा है, वह प्राप्त होता है । वैसे ही आत्मा के दाने में अन्तर में अतीन्द्रिय आनन्द और अतीन्द्रिय सर्वज्ञपद पड़ा है। वह कौन जाने कहाँ होगा ? उस पीपल की बात बैठती है कि बात सच्ची है I
यहाँ भगवान कहते हैं, आत्मा में अन्तर वस्तु में वर्तमान में पुण्य-पाप के विकल्प जो राग उत्पन्न होता है, वह तो दुःख है, आकुलता है, बन्ध का कारण है, वह आकुलता जन्म-मरण के परिभ्रमण का कारण है, उस पुण्य-पाप के भाव .... विकल्परहित अतीन्द्रिय भगवान आत्मा है, उसका अन्तर में ज्ञानी को अनुभव होने पर यह आत्मा पूरा अतीन्द्रिय पूर्ण स्वरूप से भरा हुआ है । पीपल चौंसठ पहरी चरपराहट से भरी है, वैसे आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द से भरा है - ऐसा सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञानी को आत्मा के आनन्द का, आत्मा में आनन्द है - ऐसा भरोसा आता है । वह पुण्य-पाप में आनन्द नहीं मानता, स्त्री - परिवार में आनन्द नहीं मानता, राजपाट में नहीं मानता। सम्यग्दृष्टि जीव कहीं सुख नहीं मानता। समझ में आया ? इसमें समझ में आता है ? कामदार! क्या है कौन जाने ? यह किस प्रकार की बात होगी ? आहा... हा... !
भगवान ! तेरी चीज है न अन्दर ! आत्मा अरूपी भी दल है, तत्त्व है, अरूपी तत्त्व