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गाथा-९३
उत्तर : यह पुण्य फल नहीं, पुण्य स्वयं दुःख है । ९३ गाथा है। जो सम सुक्ख णिलीणु' शब्द है। 'सम सुक्ख णिलीणु' अर्थात् समसुख में लीन.... लीन है। धर्मी उसे कहते हैं, गृहस्थाश्रम में रहने पर भी सम्यग्दृष्टि उसे कहते हैं कि आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द की मूर्ति है, उसे पुण्य और पाप के शुभ-अशुभभाव की रुचि छोड़कर, अतीन्द्रिय आनन्द का स्वाद अन्तर में दृष्टि में-श्रद्धा में, ज्ञान में लेता है, उसे धर्मी और सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। कल्याणजीभाई ! यह सूक्ष्म है, सूक्ष्म बात है, हाँ! कल्याण का मार्ग बहुत सूक्ष्म है। आहा...हा...! केवली पण्णत्तो धम्मो शरणं' पहाड़ा तो सुबह-शाम बोलता है।
__भगवान सर्वज्ञ परमेश्वर ने तीर्थङ्करदेव त्रिलोकनाथ ने सौ इन्द्र की उपस्थिति में । हाजिरी में समवसरण की सभा में महाविदेहक्षेत्र में विराजमान तीर्थङ्कर सीमन्धरप्रभु आदि वर्तमान है, और ऐसे अनन्त तीर्थङ्कर इस भरतक्षेत्र में पूर्व में हो गये हैं। वे अभी यहाँ नहीं हैं, वे सिद्धालय में । जो महावीर भगवान आदि हुए, यहाँ थे तब तक अरहन्त पद में थे, तत्पश्चात् अभी तो अब सिद्धपद शरीररहित हो गये हैं। महाविदेहक्षेत्र में भगवान विराजमान हैं, वे तो अभी अरहन्त पद में हैं। शरीर है, वाणी है, उपदेश है। महाविदेहक्षेत्र में सीमन्धर परमात्मा तीर्थङ्करदेव मौजूद महाविदेहक्षेत्र में विराजमान हैं। उन सब तीर्थङ्करों ने केवलज्ञान में ऐसा जानकर कहा कि भाई! तूने अनन्त काल परिभ्रमण में बिताया, उसका कारण कि भगवान आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द जैसा सिद्ध भगवान को आनन्द - अतीन्द्रिय आनन्द है, इन्द्रियरहित, रागरहित... ऐसा आनन्द तुझमें है परन्तु तुझे उस आनन्द की रुचि नहीं हुई है। तेरी रुचि पुण्य और पाप के भाव, शुभ और अशुभ... उनमें तेरी रुचि पड़ी है, वह दुःख की रुचि है। निर्धनता दु:ख नहीं है और सधनता सुख नहीं है, वह धूल तो बाहर की चीज है । यह मूढ़ उसमें कल्पना करता है कि मैं निर्धन ! ऐसी दीनता की कल्पना उसे दुःखरूप है। सधनता सुख नहीं है, वैसे ही दु:ख नहीं है परन्तु मैं सधन हूँ – ऐसी ममता का भाव दुःखरूप है। समझ में आया?
भगवान आत्मा सच्चिदानन्द सिद्धस्वरूप है, वह तो... सिद्ध परमात्मा हुए, वे कहाँ से हुए? वह निर्दोष दशा लाये कहाँ से? बाहर से आती है ? कल्याणजीभाई! पीपल का दृष्टान्त दिया था। उस दिन एक बार दिया था। मुम्बई, उसे याद है। उस दिन बोले थे,