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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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बुहु अर्थात् ज्ञानी। जिसने भगवान आत्मा में गृहस्थाश्रम में हो, छह खण्ड के राज्य में पड़ा दिखे, भरत चक्रवर्ती आदि... परन्तु यह अन्तर में मेरे स्वरूप में अतीन्द्रिय आनन्द है – ऐसा सम्यग्दृष्टि को अन्तर में स्वाद आ जाता है। समझ में आया? यह अतीन्द्रिय आनन्द मुझमें है – ऐसा अन्तर सम्यग्दर्शन होने पर, समकित होने पर, धर्म की पहली दशा होने पर आत्मा अतीन्द्रिय सागर है. अतीन्द्रिय आनन्द का मलस्वरूप है - ऐसा उसे स्वाद सम्यग्दर्शन में, धर्म की दृष्टि में, प्रथम श्रेणी में आनन्द है – ऐसा वेदन और अनुभव हो जाता है, उसे ज्ञानी और धर्मी कहा जाता है। आहा...हा...! समझ में आया?
इसमें पाठ क्या है ? देखो, 'सुक्ख णिलीणु' शब्द क्या है ? 'बुहु सम सुक्ख णिलीण' पहला शब्द है। कहो. मनसखभाई! इसका नाम भी मनसख है। है उसमें - ९३ में शब्द? शब्द है – ऐसा कहता हूँ। मैं मनसुख का कहाँ कहूँ? कहो, समझ में आया? मन में सुख है, यह मान्यता भी मिथ्यादृष्टि मूढ़ की है – ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षु : मन अर्थात् ज्ञान - ऐसा अर्थ होता है।
उत्तर : यहाँ यह नहीं लेना। मन अर्थात् विकल्प, जो शुभ-अशुभपरिणाम में सुख है, वह मिथ्यादृष्टि उसे मानता है। जैन सर्वज्ञ की परमात्मा की दृष्टि से विरुद्ध मान्यतावाला यह मानता है। भगवान सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ तीर्थङ्करदेव.... लेट क्यों हुआ? कल्याणजीभाई ! इधर आओ नजदीक। अभी हिन्दी चलता है, परन्तु हमारे जगजीवनभाई कहते हैं, आज गुजराती करना, हमारे मेहमान आये हैं । क्या कहा?
कि जो कोई ज्ञानी, ऐसा शब्द पड़ा है। सम, सम शब्द में 'शम' चाहिए। यह अर्थ में भूल है। ज्ञानी सम सुख में लीन होकर बारम्बार आत्मा का अनुभव करता है इतने शब्दों का अर्थ चलता है। सम सुख - भगवान परमेश्वर ने सर्वज्ञदेव त्रिलोकनाथ तीर्थङ्करदेव ने केवलज्ञान में इस आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द भगवान ने देखा है। है अतीन्द्रिय आनन्द का उलटारूप, अनादि काल से शुभ और अशुभ विकार करके, पुण्य और पाप के भाव करके वह दु:ख का वेदन और अनुभव करता है। इस दु:ख के वेदन का नाम मिथ्यादृष्टिपना और अज्ञानपना है।
मुमुक्षु : पुण्य का फल दुःख?