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गाथा - ९३
मुमुक्षु : कितना सागर है ?
उत्तर : यह सागर तो साधारण है, वह तो अनन्त सागर है। जिसमें अनन्त... अनन्त... शान्ति पड़ी है। जो सिद्ध भगवान को अनन्त आनन्द प्रगट होता है, वह कहाँ से आता है ? बाहर से आता है ? अन्तर में उसे पता नहीं कि आत्मा क्या चीज है ? और आत्मा में क्या है तथा आत्मा क्या चीज है और उसमें क्या है ? पता नहीं । मूढ़ अनन्त काल में त्यागी हुआ, भोगी हुआ, रोगी हुआ, निरोगी हुआ, राजा हुआ और रंक हुआ ... अनन्त... अनन्त बार ! परन्तु यह आत्मा क्या है और उसमें क्या है ? आत्मा क्या है और उसमें क्या है ? आत्मा चैतन्यस्वरूप है और उसमें अतीन्द्रिय शान्ति तथा आनन्द है - ऐसी अन्तर में सम्यग्दृष्टि होना, अनन्त काल यह भाव उसने प्रगट नहीं किया । यह अन्तर में अतीन्द्रिय शान्त वस्तु (मैं हूँ) ।
अतीन्द्रिय आनन्द की मूर्ति मेरा स्वरूप है, त्रिकाल परमेश्वर ने ऐसा कहा है I परमेश्वर ने ऐसा देखा है, परमेश्वर वीतरागदेव ने ऐसा फरमान किया है कि भाई ! हमें जो समसुख - वीतरागी अनन्त आनन्द जो हमें प्रगट हुआ है, वह अतीन्द्रिय सम वीतरागी आनन्द तेरी वस्तु में पड़ा है। पाटनी ! वह भी कहाँ ढूँढ़ना ? यहाँ तो चारों ओर धूल में और पैसे में और शरीर अथवा तो अन्दर के पापभाव हिंसा, झूठ, चोरी, विषय-भोग, वासना में सुख है, मूढ़ को ऐसी मान्यता अनादि का भ्रम है - ऐसा करके आगे चले तो अधिक तो राग की मन्दता- दया, दान, भक्ति, व्रत, तप के शुभभाव में आता है। वह भी राग की मन्दता के शुभभाव में अनादि से सुख है - ऐसा मूढ़ मान रहा है। समझ में आया ? रतिभाई ! क्या होगा ? है ?
भगवान सर्वज्ञ परमेश्वर 'केवली पण्णत्तो धम्मो शरणं'..... . उन केवली परमात्मा ने आत्मा में अतीन्द्रिय.... आत्मा धर्मी और उसमें अतीन्द्रिय आनन्द, उसका धर्म अर्थात् स्वभाव है । उसकी, इसने अनन्त काल में पुण्य-पाप की रुचि छोड़कर और आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द है – ऐसी इसने दृष्टि और रुचि एक सेकेण्ड भी अनन्त काल में नहीं की है। समझ में आया ?
इसलिए कहते हैं जो ज्ञानी..... पहला शब्द यह लिया। 'बुहु' शब्द पड़ा है न ? बुहु,