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गाथा-९३
है। रंग, गन्ध, स्पर्श, रसरहित, शरीरप्रमाण अरूपी चैतन्य आनन्दकन्द का दल है, पिण्ड है। मोहनभाई का लड़का है, मोहनलाल कालीदास जसाणी.... समझ में आया? जैसे, एक शीतल बर्फ की साढ़े तीन हाथ की शिला हो तो उसमें चारों ओर शीतलता... शीतलता... शीतलता... भरी है। उसके कोने में, उसके मध्य में, उसके आसपास में सब दल शीतल ही है। वैसे ही आत्मा, देह व्यापक भिन्न आनन्द की शिला है। कौन जाने क्या होगा यह ? समझ में आया? इस शिला की तरह.... बर्फ की बड़ी शिला होती है न? पाट... तुम्हारी मुम्बई में तो बड़ी होती है, कल्याणजीभाई! बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ हम देखते हैं न, इतनी -इतनी शिलायें फिरती होती हैं। यह भगवान आत्मा कितनी शिला है, इसका इसे पता नहीं होता। देह के परमाणुओं के अन्दर पृथक् और पुण्य-पाप के विकल्प जो राग उत्पन्न होता है, विकार से पृथक् यह आत्मा चैतन्य आनन्द की बड़ी शिला है। आहा...हा...! समझ में आया? जब तक इस आत्मा का अन्तर ज्ञान और अनुभव न हो, तब तक उसे धर्म की गन्ध तीन काल में नहीं हो सकती। समझ में आया?
कहते हैं, वह धर्मी जीव, जो अनादि से अज्ञान में अपने आनन्द के अतिरिक्त पुण्य-पाप के भाव में सुखबुद्धि से जिस दुःख का वेदन करता था, वह अज्ञानदशा थी, वह मिथ्यादृष्टि था; वह तत्त्व के लिए मूढ़ था। उससे भिन्न होकर भगवान आत्मा अतीन्द्रिय अनाकुल शान्तरस का प्रभु पिण्ड-दल है – ऐसी अन्तर में सम्यग्दृष्टि होने पर वह सम सुख में लीन है। आहा...हा...! है कल्याणजीभाई! शब्द तो देखो, वहाँ तुम्हारी बहियों में तो कितने फिरा डाले। पहला शब्द है न! भाई! पहला है न! भाई ! सम सुक्खणिलीणु' शब्द है । यह तो तुम्हारे दामाद के लिए कहते हैं। सम सुक्ख णिलीणु, णिलीणु' लीन, 'सम सुक्ख णिलीणु' एक शब्द में इतना पड़ा है।
___ जो कोई धर्मी 'बुहु', 'बुहु' अर्थात् ज्ञानी, जो 'सम सुक्ख णिलीणु पुण पुण अप्पु मुणेइ' - यह शब्द पड़ा है। यह तो महा सिद्धान्त मन्त्र है। भगवान आत्मा में पुण्य -पाप की आकुलता के भाव से भिन्न पड़ा हुआ प्रभु, ऐसे आत्मतत्त्व में अतीन्द्रिय शान्त आनन्दरस जिसमें भरा है, उसकी जिसे अन्तरदृष्टि होकर आत्मा के आनन्द का ज्ञान होकर आत्मा के आनन्द का स्वाद आया है, उसे ज्ञानी और सम्यग्दृष्टि और धर्मी कहते