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योगसार प्रवचन (भाग-२)
२५९ होते हैं.... इस धर्मी को राग-द्वेष होते ही नहीं... होते ही नहीं... धर्म की दृष्टि में नहीं, दृष्टि का विषय आत्मा में नहीं तो धर्मी को राग-द्वेष-मोह होते ही नहीं। इसलिए ज्ञानी को बन्ध नहीं होता। यह आस्रव अधिकार का (कलश) है। रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिरस (गाथा १७७) यह आस्रव की गाथा है न? उसके पहले का उपोद्घात का कलश है। समझ में आया? भगवान आत्मा का ज्ञान हुआ कि शुद्ध आत्मा है, बन्धरहित स्वरूप है, अबन्धस्वरूपी भगवान है। दृष्टि अबन्धस्वरूप की हुई (तो उसके) दृष्टिवन्त को राग-द्वेष-मोह नहीं होते हैं, उसे बन्ध नहीं है।
आत्मरमणता से वीतरागभाव बढ़ता है.... और स्वभाव में रमणता के कारण वीतरागभाव बढ़ जाता है, थोड़ा राग बाकी है, वह भी घट जाता है । कहो, समझ में आया? बन्ध रुकता है। भगवान आत्मा स्वरूप की दृष्टि हुई, अबन्धस्वरूपी आत्मा, अबन्धस्वभाव... कहो या मुक्त कहो – ऐसी दृष्टि हुई तो अबन्ध परिणाम हुए, अबन्ध परिणाम में बन्ध नहीं होता; बन्ध का नाश होता है।
श्रोता - (प्रमाण वचन गुरुदेव)
ऊँचा नाम रखकर नीचा कार्य करना योग्य नहीं यदि मुनि अपने लिए बनाया हुआ आहार लेते हैं तो उनकी नवकोटि शुद्ध नहीं है, उनका आहार ही शुद्ध नहीं है - ऐसी बात है। बापू! मार्ग तो ऐसा है। अरे ! ऊँचा नाम धराकर नीची दशा के कार्य करना तो जगत में महापाप है। इसके बदले तो हमारी ऊँची दशा नहीं है, बापू! हम तो अविरत सम्यग्दृष्टि हैं' - ऐसा मानना अथवा कहना, जिससे प्रतिज्ञा भङ्ग का पाप नहीं लगे, लेकिन यदि बड़ा नाम धराकर प्रतिज्ञा तोड़ दे तो महापाप है। जैसे कि उपवास का नाम धराकर एक कण भी खावे तो महापाप है, वह महापापी है और 'मुझे उपवास नहीं है, लेकिन मैं सिर्फ एक बार खाता हूँ, इस प्रकार एकासन करे तो अकेला शुभराग है।
(-प्रवचन-रत्न चिन्तामणि, ३/१२१)