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समसुख भोगी निर्वाण का पात्र है
जो समसुक्ख णिलीणु बहु पुण पुण अप्पु मुणेइ । कम्मक्खउ करि सो वि फुडु लहु णिव्वाणु लहेइ॥९३॥
शम सुख में लवलीन जो, करते निज अभ्यास । करके निश्चय कर्म क्षय, लहे शीघ्र शिववास ॥
अन्वयार्थ - ( जो बुहु समसुक्ख णिलीणु पुण पुण अप्पु मुणेइ ) जो ज्ञानी समता सुख में लीन होकर बार-बार आत्मा का अनुभव करता है ( सो वि फुड्डु कम्मक्खउ करि, लहु णिव्वाणु लहेइ ) वही प्रगटपने कर्मों का क्षय करके शीघ्र ही निर्वाण को पाता है।
वीर संवत २४९२ श्रावण शुक्ल १,
गाथा ९३
मंगलवार, दिनाङ्क १९-०७-१९६६ प्रवचन नं. ३८
यह योगसार नामक शास्त्र है, उसकी यह ९३ वीं गाथा है । ९३ समसुख भोगी निर्वाण का पात्र है। निर्वाण का पात्र कौन है ? ( वह कहते हैं )
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जो समसुक्ख णिलीणु बुहु पुण पुण अप्पु मुणेइ । कम्मक्खउ करि सो वि फुडु लहु णिव्वाणु लहेइ ॥ ९३ ॥
मूल गाथा है, उसका अर्थ जरा सूक्ष्म है। क्या कहते ? जो कोई 'बुहु', अर्थात् ज्ञानी । ज्ञानी-धर्मी उसे कहते हैं कि यह आत्मा आनन्दस्वरूप है, ज्ञानानन्द चैतन्यस्वरूप शुद्ध है, उसका जिसे शरीर, कर्मरहित और पुण्य-पाप के भाव - विकार से रहित, अपने आत्मा के शुद्धस्वरूप का भान और अनुभव होता है, उसे धर्मी और ज्ञानी कहते हैं। समझ आया? उसे धर्म की शुरुआत करनेवाला कहते हैं ।