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गाथा-९२
अपने स्वभाव में रत होता है.... देखो, ऐसा भगवान आत्मा ज्ञान का सूर्य, ज्ञान का सूर्य, उसमें रत होता है, वह उसका स्वभाव कहलाता है। ज्ञानस्वरूपी भगवान में लीन होवे तो जीव कर्मों से लिप्त नहीं होता। लिप्त कहाँ से होगा? जहाँ अन्दर वस्तु में लीन हुआ तो कर्म से बन्ध कहाँ से होगा? समझ में आया? निर्जरा होती है।
आत्मा में लीन भव्यजीव मोक्षमार्गी है, वह रत्नत्रय की एकता धारण करता है।अपना आत्मा, उसकी रुचि, उसका स्वसंवेदन ज्ञान और उसका स्वरूपाचरण... इस प्रकार तीनों की एकता रखता है। वीतराग समभाव से लीन होता है । वीतरागभाव में अथवा समभाव में लीन होता है। राग-द्वेष विहीन होता है; इसलिए कर्मों से नहीं बँधता है। बन्धनाशक वीतरागभाव है। बन्ध का नाश करनेवाला तो आत्मा वीतरागस्वरूप
और उसमें से उत्पन्न हुआ वीतरागभाव है। सम्यग्दर्शन भी वीतरागभाव है, भाई! अन्य लोग कहते हैं सरागसम्यक्त्व है। सरागसम्यक्त्व तो उसे राग से कहा है। सम्यक्त्व सराग – फराग है ही नहीं। वीतराग सम्यग्दर्शन। तब वे कहते हैं, वीतराग सम्यग्दर्शन आठवें में होता है, चौथे में सराग सम्यग्दर्शन होता है।
मुमुक्षु - अमुक ऐसा कहते हैं, छठवें में होता है।
उत्तर – परन्तु वह तो छठवें में कहते हैं । सातवें में वीतराग है, गौणरूप से चौथे का लिया है, वहाँ टीका में लिया है।
कहते हैं, बन्धनाशक वीतरागभाव; बन्धकारक राग-द्वेष-मोह । दोनों बन्ध आते हैं न? मोह मिथ्यात्वभाव को कहते हैं, वह तो ठीक। इकतालीस प्रकृतियों का बन्ध नहीं करता, लो! सम्यग्दृष्टि अपने शुद्धस्वरूप की दृष्टि में आंशिक स्थिर हुआ, उसे इकतालीस प्रकृति का बन्ध तो सहज नहीं है। युद्ध में खड़ा हो तो भी इकतालीस प्रकृति का बन्ध नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? और अज्ञानी ऐसी दया पालने की पिच्छी लेकर, मोर पिच्छी लेकर (चलता हो) दृष्टि कर्ताबुद्धि की है, यह क्रिया मैं करता हूँ, राग आया वह मेरा धर्म है – ऐसी मिथ्याबुद्धि में मिथ्यात्व का चिकना अनन्त संसार पड़ता है। समझ में आया? फिर बहुत बात की है।
अन्तिम श्लोक समयसार कलश का (लिया है) ज्ञानी को राग-द्वेष-मोह नहीं