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________________ २२६ गाथा-८९ उगमणो (पूर्व) समझते हो? पहले पश्चिम में थोड़ा चले फिर पूर्व में चले, इसका अर्थ क्या? देवानुप्रिया! ये सेठ है, दलाल और है भी सेठ, हाँ! इसके परिवार में सेठ कहलाते हैं, सेठिया, सेठ, सेठ। कहो, समझ में आया? यहाँ तो श्रेष्ठ-स्व आश्रय करना, वह श्रेष्ठ है। आहा...हा...! यह तो सेठ अर्थात् प्रभु! महान श्रेष्ठ स्वद्रव्यस्वभाव, उसके आश्रय से ही श्रेष्ठ सम्यग्दर्शन, ज्ञान की प्राप्ति होती है; अत: धर्मात्मा का चित्त जब तक परद्रव्य पर रहा, अरे... ! क्षायिक सम्यक्त्व हुआ, स्व आश्रय से चारित्र भी हुआ परन्तु जब तक पर के आश्रय से राग रहता है, तब तक उसका अभाव किये बिना, स्व आश्रय किये बिना मुक्ति नहीं होती है। आहा...हा...! समझ में आया? कहते हैं न, पराधीन सपने सुख नाहीं... ऐसा नहीं कहते? भाषा तो करते हैं, पराधीन सपने सुख नाही... इसका अर्थ क्या है ? भगवान आत्मा अपना आश्रय छोड़कर साक्षात् सर्वज्ञ परमेश्वर का आश्रय करे तो भी अशुद्धभाव / विकल्प उठता है; उससे मुक्ति नहीं होती, बन्ध है। पराश्रयभाव, व्यवहार, बन्ध है; स्वआश्रय उत्पन्न हुआ, वह अबन्धभाव है, एक ही बात। तीन काल-तीन लोक में सिद्धान्त सिद्ध (हुआ है) वह बदलेगा नहीं। समझ में आया? यह श्लोक आधार में दिया था। ८९ श्लोक का आधार था। अब ९० (गाथा) सम्यक्त्वी ही पण्डित व प्रधान है जो सम्मत्त-पहाण बुहु सो तइलोय-पहाणु। केवण-णाण वि लहु लहइ सासय-सुक्ख-णिहाणु॥९०॥ जो सम्यक्त्व प्रधान बुध, वही त्रिलोक प्रधान। पावे केवलज्ञान झट, शाश्वत सौख्य निधान॥ अन्वयार्थ - (जो सम्मत्त-पहाण) जो सम्यग्दर्शन का स्वामी है (बुहु) वह पण्डित है (सो तइलोय पहाणु) वही तीन लोक में प्रधान है (सासय सुक्ख
SR No.009482
Book TitleYogsara Pravachan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages420
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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