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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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णिहाणु केवल णाण व लहु लहइ ) सो अविनाशी सुख के निधान केवलज्ञान को शीघ्र पा लेता है।
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सम्यक्त्वी ही पण्डित व प्रधान है। प्रधान है न ? प्रधान; प्रधान का अर्थ मुख्य किया । बहु का अर्थ पण्डित किया है।
जो सम्मत्त - पहाण बुहु सो तइलोय-पहाणु। केवण-णाण वि लहु लहइ सासय- सुक्ख - णिहाणु ॥ ९० ॥ ओ...हो... ! दिगम्बर सन्तों ने काम किया है न! बहुत संक्षिप्त शब्दों में पूरा सार ... सार। योगसार है न! अपने स्वआश्रय से जो पर्याय प्रगट हुई, उसका नाम योग कहते हैं। वह योग का सार है । पर के आश्रय से जो राग होता है, वह योगसार नहीं है। समझ में आया ?
जो सम्यग्दर्शन का स्वामी है... बुहु वह पण्डित है । आहा... हा... ! वही पण्डित है। भगवान आत्मा... आत्मा समझे वह पण्डित, दूसरा पण्डित कौन है ? ग्यारह अंग नौ पूर्व भी अनन्त बार पढ़ गया, वह पण्डित नहीं हुआ, फिर नाश हो गया। ग्यारह अंग नौ पूर्व पढ़ा, आत्मा का आश्रय नहीं लिया, सम्यग्दर्शन नहीं हुआ (तो) ग्यारह अंग
पूर्व नष्ट हुआ, निगोद में चला गया। निगोद में अक्षर के अनन्तवें भाग (ज्ञान) रह गया, इतना क्षयोपशम, परन्तु वह क्षयोपशम स्व का कहाँ था ? पराश्रय था, वह भी कल्याण का कारण नहीं है। ग्यारह अंग और नौ पूर्व का क्षयोपशम भी कल्याण का कारण नहीं है। समझ में आया? क्योंकि पराश्रय है ।
भगवान आत्मा ज्ञानमूर्ति में एकाग्र होकर उसमें से ज्ञान का कण निकालना । ज्ञान का कण! लो, फिर कण याद आया । है न 'परमार्थवचनिका' में? स्वरूप की कणिका जागी – ऐसा पाठ है । स्वरूप की कणिका जागी । दृष्टि और ज्ञान से स्वरूप की चारित्र के अंश (की) कणिका जागी, (वह) मोक्षमार्ग है, वरना मोक्षमार्ग नहीं है। परमार्थवचनिका, बनारसीदास... बनारसीदास महापण्डित ! यथार्थ तत्त्व (कहा है) । वर्तमान पण्डितों पर