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योगसार प्रवचन (भाग-२)
में आया ? आहा... हा... ! इसमें चर्चा और वाद-विवाद तो अवसर भी कहाँ है ? है ?
कहते हैं, पण्डितजी का पढ़ाया हुआ शिष्य कहता है, दो मिनिट की बात है । सुना है ? यह सागरवाले नहीं ? मुन्नालालजी, वे लिखते हैं कि यह उपादान, निमित्त, निश्चय, व्यवहार और क्रमबद्ध की दो मिनिट की बात है । इतनी सिरपच्ची क्या करते हो ? उपादान से होता है, स्वयं से; निमित्त है; निश्चय होता है तो व्यवहार है, बस ! सीधी बात है और द्रव्य की व्यवस्थित पर्याय है, वह क्रमबद्ध... दो मिनिट की बात में इतनी क्या चर्चा ? पाटनी ने बड़ा लम्बा किया जयपुर में, कितने हजार खर्च करेंगे ? दस-दस हजार ऐसा कहते हैं। उसमें लिखा है, तुम्हारा नाम नहीं लिखा। यह लोग इतने सब पैसे खर्च कर सकते हैं और इतना करते हैं। दो मिनिट का काम है । शान्ति से दो पण्डित मिल जायें तो यह बड़े पण्डित हैं, उनके साथ बैठाना चाहिए। यह कहे कि हमें कुछ करना नहीं है परन्तु क्या करे कौन माने ?
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भाई ! ऐसा अवसर मिला । जैनदर्शन का मूल तत्त्व है, उससे विपरीत होवे तो शासन की पद्धति बदल जाएगी। सर्वज्ञ परमात्मा त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ ने जो पन्थ कहा, उसकी पद्धति न रहे तो पूरी अन्यमती जैसी पद्धति हो जाएगी। राग से लाभ है, पर से लाभ है, यह तो अन्यमत की पद्धति है, जैनदर्शन की यह है ही नहीं। भाई ! जैनदर्शन की पद्धति सर्वज्ञ की परम्परा 'अनादि से चली है, वैसी आनी चाहिए। विशेष स्थिरता भले अन्दर न हो परन्तु दृष्टि तो अपने स्वरूप के आश्रय से लाभ है, यह बात तीन काल में दूसरी नहीं होनी चाहिए। समझ में आया ? ज्ञानचन्दजी ! आहा...हा...!
देखो, पाठ ऐसा है, ‘सुद्धे भावे लहुं लहइ' यह 'सुद्धे भावे' वर्तमान पर्याय की बात है, हाँ ! त्रिकाल की नहीं । त्रिकाल तो शुद्ध है ही परन्तु त्रिकाल का आश्रय करना, वह शुद्धभाव है, और परका आश्रय करना, वह अशुद्धभाव है । इस प्रकार देवसेनाचार्य ने संक्षिप्त शब्द ले लिये हैं। समझ में आया ? शुद्ध आत्मिकभावों का लाभ होने पर .... देखो ! वह शीघ्र ही मोक्ष को पा लेता है । आहा... हा...! समझ में आया ?
मुमुक्षु : पर का आश्रय तो पहले करे न ?
उत्तर : पर का आश्रय पहले करे । पश्चिम में जाये तब पूर्व को चले, ऐसा होगा ?