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योगसार प्रवचन (भाग-२)
२११ रखते हैं ? यह बोरी... बोरी होती है न? चावल की बोरी... उसमें हीरा रखते हैं ? वारदान में हीरा रखते हैं? हीरा तो बड़ी मखमल की डिब्बी में रखते हैं। इसी तरह सम्यग्दृष्टि जीव उत्तम माता-पिता हो वहाँ जाता है। डिब्बी ऐसी होती है, यह सहज पुण्य का स्वभाव है। समझ में आया? लालच देने की बात नहीं है, उसका पुण्य भी लोकोत्तर पुण्य है। सम्यग्दर्शन के बाद जन्म लिया... समझ में आया?
श्रीमद् एक पत्र में लिखते हैं, यह देह यदि पहले नहीं मिला हो तो अब बाद में यह देह मुझे नहीं मिलेगा, यह देह नहीं मिलेगा, दूसरा ऐसा नया देह मिलेगा कि पूर्व में अनन्त काल में नहीं मिला होगा! सम्यक्त्व की भूमिका में जो विकल्प आया और पुण्य बँधा - ऐसा अनन्त काल में नहीं बँधा था। समझ में आया? वह जाति अलग है, शरीर के रजकणों की जाति ही अलग हो जाती है। जैसे भगवान को परम औदारिक हो जाता है।
सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जाये, वहाँ अनन्त काल में ऐसा सम्यक्भाव में, भूमिका में उसने ऐसा पुण्य कभी नहीं बाँधा था। उस भूमिका में ऐसा पुण्य बाँधता है कि उसके फलरूप ऐसा शरीर मिलता है कि निरोग, सुन्दर, आदि सब (होता है)। यह वस्तु स्वरूप है। समझ में आया? पुण्य-पाप की स्थिति घटती है। पाप का रस घटता है, पुण्य का रस बढ़ता है। क्या (कहा)? सम्यग्दृष्टि को पुण्य का रस बढ़ता है। पाप की स्थिति घटती है, पुण्य की स्थिति भले घटे, रस (अनुभाग) नहीं घटता; अनुभाग तो बढ़ता जाता है। जैसे ज्ञान बढ़ता जाये, वैसे उसका रस बढ़ जाता है। पूरा हो जाये तो छूट जाता है। समझ में आया? यह शास्त्र का कथन है, यह वस्तु का स्वरूप है – ऐसा बताते हैं।
अप्प-सरूवहँ जो रमइ छंडिवि सहु ववहारू।
सो सम्माइट्ठी हवइ लहु पावइ भवपारू॥८९॥
लो, अद्भुत... भाई ! जो सर्व व्यवहार को छोड़कर... सर्व व्यवहार का अर्थ - भगवान की श्रद्धा, रागादि की विकल्प यह भी व्यवहार है। व्यवहाररत्नत्रय का विकल्प, वह व्यवहार है। सर्व व्यवहार को छोड़कर... आहा...हा...!
मुमुक्षु : व्यवहार से तो मुक्त है न? उत्तर : मुक्त ही है, सम्यक्त्व में स्वभाव की एकताबुद्धि हुई तो राग से मुक्त है। राग