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गाथा-८९
'णाणसहावाधियं मुणदि आदं' राजा की ध्वजा ऊपर होती है न? इसी प्रकार हमारी जय है, विजय है। राग की, कर्म की पराजय है । मूढ़ (ऐसा कहते हैं) ऐसे कर्म आते हैं, मुझे मार डालते हैं । मूर्ख... ! कर्म में तू शक्ति मानता है और तुझमें शक्ति नहीं है? समझ में आया? वह तो परद्रव्य है, उसमें शक्ति (मानता है) अरे...! भगवान! ऐसा कर्म है.... मैं ऐसा पुरुषार्थ करूँ कि क्षण में केवलज्ञान प्राप्त करूँ - ऐसा क्यों नहीं लेता? समझ में आया? मेरे आत्मा में एक क्षण में ऐसा उग्ररूप से झुक जाऊँ कि सर्वज्ञपद (प्रगट हो जाये) सर्वज्ञपद पड़ा है, प्राप्त की प्राप्ति है। उसे ऐसी शंका नहीं होती कि मुझे कर्म आयेगा और अमुक आयेगा - ऐसी शंका धर्मी को नहीं होती, वृद्धि ही होती है। विजय प्राप्त (करनेवाला है)।
महाकुलवान... सम्यग्दृष्टि महाकुलवान में उत्पन्न होता है । हल्के कुल में (नहीं आता)। महाधनवान... बाद की बात है, सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के बाद महाधनवान (होता है)। मनुष्यों में मुख्य होता है। यहाँ आत्मा को मुख्य किया तो बाहर में भी सबमें मुख्य क्यों नहीं होगा? ऐसा पुण्यानुबन्धी पुण्य बँध जाता है। कहो, समझ में आया?
सम्यग्दृष्टि का श्रेष्ठ कर्तव्य अप्प-सरूवहँ जो रमइ छंडिवि सहु ववहारू। सो सम्माइट्ठी हवइ लहु पावइ भवपारू॥८९॥
रमें जो आत्मस्वरूप में, तजकर सब व्यवहार।
सम्यग्दृष्टि जीव वह, शीघ्र होय भवपार॥ अन्वयार्थ - (जो सहु ववहारू छंडिवि) जो सर्व व्यवहार को छोड़कर (अप्प सरूवहँ रमइ) अपने आत्मा के स्वरूप में रमण करता है (सो सम्माइट्ठी हवइ) वही सम्यग्दृष्टि है (लहु पावइ भावपारू) वह शीघ्र ही संसार से पार हो जाता है।
८९ । सम्यग्दृष्टि का श्रेष्ठ कर्तव्य। वस्तु ऐसी ही है। हीरे को कहीं थैली में