________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
२०९ का दृष्टि में भान हुआ फिर बाहर में अंगहीन मिले – ऐसा पुण्य किसलिए बाँधेगा? समझ में आया? अल्प आयुवाला... हो ऐसा नहीं है और दरिद्री नहीं होता।
सम्यग्दर्शन से पवित्र जीव ओज... ओज... ओज... ओजस्वी पराक्रमी दिखता है। हमाल (मजदूर) जैसा नहीं दिखता। अपने पुरुषार्थ का पराक्रम अन्दर से, हाँ! बाहर के पराक्रम की बात नहीं है । तेज... प्रताप, अन्तर प्रताप (होता है)। प्रभुत्व शक्ति खिली है न? प्रभुत्व शक्ति का अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने ऐसा (किया है कि) स्वतन्त्रता से शोभित अखण्ड प्रताप, जिसका प्रताप कोई खण्डित न कर सके (ऐसी) प्रभुत्वशक्ति आत्मा की है। ऐसे शक्तिवान का भान हुआ तो अपना प्रताप से दूसरे का प्रताप उसमें लागू नहीं पड़ता। कहो, समझ में आया?
विद्या... देखो ! सम्यग्दृष्टि अच्छी विद्या में उत्पन्न होता है, ओज लेकर गया है न ! वीर्य... पुरुषार्थ... पुरुषार्थ-बल। यश... सम्यग्दृष्टि पुण्य बाँधे, उसमें यश ही होता है। क्या वह पापी है? समझ में आया? श्रेणिक (राजा) सम्यग्दृष्टि तीर्थंकर नामकर्म बाँधकर गये हैं। बाहर निकलेंगे (फिर) तीर्थंकर (होंगे) । ओहो...हो... ! माता के गर्भ में आने से पहले छह महीने पूर्व देव आयेंगे। अहो ! माता! हे रत्नकूखधारिणी! रत्न को कूख में धरनेवाली माता-जननी, आपके गर्भ में भगवान आये हैं। बड़ा व्यक्ति आवे, तब पहले सफाई करने नहीं जाते? कोई मनुष्य आनेवाला हो तो दो घण्टे-चार घण्टे पहले जमीन साफ करते हैं, पानी का गोला करते हैं, करते हैं या नहीं यहाँ ? राजा आते हों तो सफाई करते हैं। मकान-बकान साफ करते हैं। ऐसे कोई आयेगा? तीन लोक का नाथ भले नरक में से आते हैं। आहा...हा...! माता ! तुम्हारा गर्भ साफ करने आयेंगे। कौन आते हैं ? त्रिलोकनाथ भगवान! इतना पण्य! सम्यग्दर्शनसहित क्या नीच गति. हल्की गति में जायेगा
और हल्की गति-नरक में गये तो भी कर्म की निर्जरा के कारण गये हैं – ऐसा यहाँ कहते हैं। समझ में आया?
वृद्धि... वृद्धि... वृद्धि... । उसे शुद्धि की वृद्धि ही होती है, बाह्य के पुण्य की भी वृद्धि होती है। और विजय प्राप्त करनेवाला... है। स्वयं की विजय है, हम कभी गिरनेवाले नहीं हैं, हमारी विजय है, हमारी विजय है, हमारी ध्वजा ऊपर है।