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गाथा-८९
है अवश्य (परन्तु) स्वभाव में नहीं है, दृष्टि में नहीं है, दृष्टि के विषय में नहीं है; वह (व्यवहार) तो पर विषय हो गया। व्यवहार है अवश्य परन्तु जैसे परद्रव्य है, वैसे ज्ञानी को व्यवहार, परद्रव्यरूप है। समझ में आया? आहा...हा...!
सर्व व्यवहार को छोड़कर अपने आत्मा के स्वरूप में रमणता करता है। भगवान आत्मा... ! समझ में आया? अपने शुद्ध प्रभु की ओर का अन्तर झुकाव है, जहाँ अनन्तानन्त गुण का पिण्ड प्रभु... अनन्तानन्त गुण ! ओ...हो...! जो तीन काल के समय की अपेक्षा अनन्तानन्त गुण पड़े हैं, ऐसा प्रभु तीन काल को ग्रास कर गया। ओहो...हो...! समझ में आया? ऐसा अनन्तानन्त गुण का पिण्ड आत्मा, उसके अनुभव से... समझ में आया? वह सम्यग्दृष्टि (उसमें) रमण करता है और अब शीघ्र ही संसार से पार हो जाता है। उदय को पार कर देता है, अपनी पूर्ण प्राप्त करके उदय का अभाव कर डालता है। समझ में आया?
जिसे निर्वाण ही एक ग्रहण योग्य पद दिखता है... पूर्ण शुद्ध जो ध्येय में है, वही ग्रहण करने योग्य दिखता है। चारों गतियों की सर्व कर्मजनित दशाओं को त्यागने योग्य समझता है। जो अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य की प्राप्ति को परम लाभ समझता है। अपनी शुद्धि की वृद्धि को ही परम लाभ समझता है । आहा...हा...! बाहर में चक्रवर्ती का पद मिला तो लाभ हुआ – ऐसा समकिती नहीं मानता। अपने अनन्त ज्ञान, दर्शन, आनन्द पड़े हैं, उसमें से शुद्धि की वृद्धि हो, वही मेरा लाभ है, वही मेरा लाभ है। लाभ सवाया, तुम्हारे लिखते हैं न? बनिये लिखते हैं, लाभ सवाया। वह लाभ किसका? धूल का-पैसा का? हैं ! मलूकचन्दभाई ! क्या है?
यहाँ तो लाभ सवाया, लाभ दुगना, लाभ तिगुना, लाभ अनन्त गुना... आहा...हा...! भगवान के घर कहाँ कमी है ? तो अनन्त गुणा प्राप्त न करे? पूर्णानन्द प्रभु है, आहा...हा...! जहाँ अपने स्वरूप की निःशंक दृष्टि हो गयी (तो वह) मोक्ष के मार्ग में चला। अल्प काल में मोक्ष (जायेगा)। संसार-फंसार है ही नहीं। भगवान को पूछना नहीं पड़ता कि महाराज! हमारे कितने भव हैं ? अरे...! चल... चल ! तुझे शंका है तो भगवान जानते हैं कि शंका है। तू नि:शंक है तो भगवान जानते हैं कि तू नि:शंक है। भगवान तुझे कर देते हैं?