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गाथा-८८
निन्दा (करता) है। अरे! हमारी चीज में हम एकाकार होना चाहते हैं। उसमें यह क्या? निन्दा करता है।
(४) गा – गुरु के समक्ष गा करता है। समझ में आया? अपनी कमजोरी की निन्दा करता रहता है। देखो! स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिया है, आत्मा का भान हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ, अनन्तानुबन्धी का अभाव हुआ तो पर्याय में अपने को तुच्छ देखता है। अरे... ! हमारी पर्याय बहुत अल्प है। कहाँ भगवान केवलज्ञानी की दशा, कहाँ सन्तों की चारित्र की रमणता की उग्र-उग्र स्वसंवेदन की दशा.... समझ में आया? यह पाँचवीं (गाथा में) लिया है न? प्रचुर स्वसंवेदन... । (समयसार में) कुन्दकुन्दाचार्यदेव कहते हैं, हम पर तो हमारे गुरु की कृपा हुई है। हमें गुरु ने उपदेश दिया, भगवान तू शुद्धात्मा है न ! लो, सम्पूर्ण बारह अंग इसमें आ गये। हमारे गुरु ने हमें, सर्वज्ञ से लेकर हमारे गुरुपर्यन्त, अपरगुरु... यह पाँचवीं गाथा में आता है। वे सर्वज्ञ जो कि विज्ञानघन है और हमारे गुरु भी विज्ञानघन हैं । अल्प थोड़े ही हैं - ऐसा नहीं है। शब्द विज्ञानघन लिया है – ऐसा संस्कृत में पाठ है । विज्ञानघन में मग्न है न? ऐसा लिया है। अन्तरमग्न, अन्तरनिमग्न – ऐसा पाठ है। अपर गुरु भगवान से लेकर हमारे गुरु विज्ञानघन में अन्तरनिमग्न हैं, वहाँ इतनी व्याख्या की। उन्होंने हम पर कृपा की, हमें उपदेश दिया। हमारी पात्रता थी – ऐसा नहीं लिया। ऐसा पाठ है। क्या (उपदेश) दिया?
भगवान! तू शुद्ध आत्मा है न! आहा...हा... ! ऐसा उपदेश दिया और हमें प्रचुर स्वसंवेदन प्रगट हुआ। मुनि है न! सम्यग्दृष्टि में स्वसंवेदन है, प्रचुर नहीं। मुनि है, चारित्रदशा है, प्रचुर स्वसंवेदन... प्रचुर स्वसंवेदन। ओ...हो...हो... ! हमारे अनुभव से, हमारे वैभव से हम कहते हैं - ऐसा कहते हैं। समझ में आया?
(यहाँ) कहते हैं कि थोड़ा भी दोष होवे तो कमी दिखती है। अरे...! हमारी पर्याय पूर्ण केवलज्ञान अतीन्द्रिय आनन्द की पूर्ण दशा होनी चाहिए, (उसमें) यह क्या? समझ में आया? ऐसी निन्दा (करता है)। उत्साह नहीं होता कि राग हो तो हो, भले हो - ऐसा नहीं। समझ में आया? परमात्मा शुद्ध चैतन्य की ओर का झुकाव है, तो राग की ओर की निन्दा-गर्या होती है – ऐसा उसका लक्षण है। समझ में आया?