________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
२०५
आया? ऐसे ही आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द की डली है। मक्खी जैसे चतुरिन्द्रिय प्राणी को भी मिठास लगे, वहाँ से रुचि नहीं हटती तो आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द की बड़ी डली है।
'चाखे रस पूरण करे, छूटे सुरिजन, सुरिजन टोरि' समझ में आया? यह आनन्दघनजी कहते हैं । 'चाखे रख क्यों करि छूटे?' भगवान आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द के दर्शन हुए, प्रतीति हुई, स्वाद आया, वह 'चाखे रख क्यों करि छूटे?' 'सुरिजन, सुरिजन टोरि' देवता की टोली आये और कहे, ऐसा नहीं... (तो यह कहता है कि) चल, चल! हमको जो अनुभव हुआ है, वह चीज अन्यत्र कहीं है ही नहीं। समझ में आया? 'सोहागन लागि अनुभव प्रीत' सोहागन... सोहागन कहते हैं न यह? पतिव्रता स्त्री को सोहागन (सुहागन) पति हो न पति ! उसे सौभाग्यवती कहते हैं। ऐसे 'सोहागन लागि अनुभव प्रीत' भगवान आत्मा, यह सुहागन प्रीत लगी। मस्तक पर स्वामी-आत्मा देखा। समझ में आया? यह आनन्दघनजी ने लिखा है। कुछ समझ में आया?
संसार की तरफ पीठ रखता है, उसके भीतर आठ लक्षण या चिह्न प्रगट हो जाते हैं... यह जरा लिखते हैं। संवेग होता है। धर्म का प्रेम, धर्म का वेग। (१) संवेग – ज्ञानी का स्वभाव की तरफ का वेग है। (२) निर्वेग – स्वभाव की तरफ से उदास है। संवेग अस्ति है, (निर्वेद) वैराग्य है। समझ में आया? स्वभाव शुद्ध आत्मा की ओर का वेग, गति, वीर्य, रुचि अनुयायी वीर्य, रुचि अनुयायी वीर्य, शुद्धस्वभाव की रुचि हुई तो वीर्य, रुचि के अनुसार ही वीर्य गति करता है। इसका नाम संवेग कहते हैं । वैराग्य-संसार शरीर, भोग, सम्पूर्ण संसार से वैराग्य, (आत्मा में) संवेग, यहाँ (निर्वेद) संसार की चारों गतियों में आकलता है। यह शरीर कारागह है. इन्द्रियों के भोग अतप्तिकारक और नाशवन्त हैं। ऐसा वैराग्य है। वैराग्य, हाँ! द्वेष नहीं (कि) यह विषय ऐसे हैं, यह शरीर ऐसा है; वे तो ज्ञेय हैं। उस ओर का प्रेम है, वह छूट गया है और स्वभाव की ओर का प्रेम हो गया है।
(३) निन्दा - स्वयं को जरा राग आता है तो अन्तर में खेद (होता है कि) यह क्या? अरे...! यह क्या? देखो! समकिती को भोग भी होते हैं परन्तु उसमें