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गाथा-८७
इसमें (समयसार में) भी लिया है, सातवीं गाथा में लिया है। पण्डित जयचन्दजी ने बहुत अच्छा लिया है, सब व्याख्यान हो गये हैं। सातवीं गाथा... ववहारेणुवदिस्सदि' है न! उसमें लिया है। (भावार्थ) यहाँ कोई कहे कि पर्याय भी द्रव्य का ही भेद है, अवस्तु तो नहीं; तो उसे व्यवहार कैसे कहा जा सकता है ? दर्शन-ज्ञान-चारित्र तो अपनी पर्याय है, उसे व्यवहार कैसे कहा जाए? समझ में आया? व्यवहार तो उसे कहें. समझ में आया? देखो! उसका समाधान । व्यवहार उसे कहते हैं कि अपने में न हो - ऐसे पर को व्यवहार कहते हैं । यह तो तुम अपनी पर्याय को व्यवहार कहते हो तो व्यवहार का अर्थ ऐसा होता है कि अवस्तु होता है। अपनी चीज नहीं, वह अवस्तु है तो पर्याय को तुम अवस्तु कैसे कहते हो? अर्थात् तुम व्यवहार कैसे कहते हो? व्यवहार कहते ही तुमने अवस्तु कही... (ऐसा) शिष्य ने प्रश्न किया... तुमने व्यवहार क्यों कहा? तब तो अवस्तु हो जाती है। तो कहते हैं सुन ! यह सही बात है, तेरी बात सही है, ऐसा कहकर कहते हैं। यह ठीक है किन्तु यहाँ द्रव्यदृष्टि से अभेद को प्रधान करके उपदेश दिया है।
___ अभेददृष्टि में भेद को गौण कहने से ही अभेद भलीभाँति मालूम हो सकता है। उसमें भेद है, अभेद में अन्दर गुण नहीं? परन्तु गुणभेद करने से विकल्प उत्पन्न होता है। भेद को गौण करके उसे व्यवहार कहा है। देखा ! भेद को गौण करके व्यवहार कहा है। यहाँ ऐसा अभिप्राय है कि भेददृष्टि में भी निर्विकल्प दशा नहीं होती और सरागी को विकल्प होते रहते हैं... यह एक महासिद्धान्त है। इसलिए जहाँ तक रागादि दूर नहीं हो जाते, वहाँ तक भेद को गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया गया है। वीतराग होने के बाद भेदाभेदरूप वस्तु का ज्ञाता हो जाता है... फिर भेद जाने, तीन काल-तीन लोक जाने। भगवान एक-एक पर्याय सबको जानते हैं, यह राग का भेद जानना, वह राग का कारण नहीं परन्तु रागी प्राणी है और भेद पर लक्ष्य जाता है तो विकल्प उत्पन्न हुए बिना नहीं रहता, यह हेतु है।
इस कारण यहाँ कहा। भगवान तो एक-एक पर्याय के अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद को एक-एक को पृथक्-पृथक् जानते हैं । एक द्रव्य के अनन्त गुण, एक गुण की अनन्त पर्याय, एक पर्याय के अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद; ज्ञान में तो भगवान सर्व विशेष जानते हैं।