________________
योगसार प्रवचन (भाग-२)
१९७
विशेष जानना, वह कहीं राग का कारण नहीं है परन्तु नीचे उपयोग रागवाला है और रागी प्राणी है तो भेद का लक्ष्य करने से रागी को राग उत्पन्न होता है ऐसी बात है । आहा... हा...! समझ में आया ?
मुमुक्षु : अनुमोदन है वह ?
उत्तर : अनुमोदन नहीं, वह विकल्प है। वह रागी है न ? तो वहाँ एकरूपता नहीं रही, अनेकता का लक्ष्य हुआ तो विकल्प ही उत्पन्न होता है। जरा समझना, अनेक रूप जानना, वह राग का कारण है, परन्तु रागी एकरूप को जाने, तब निर्विकल्प होता है और रागी है, इसलिए अनेक पर लक्ष्य जाए तब उसे विकल्प उत्पन्न होता है, वह राग का - मोह का कारण है। समझ में आया ?
यहाँ कहते हैं - वीतरागदशा प्राप्त करने के लिए व्यवहारनय के समस्त विचारों को बन्द करके केवल निश्चयनय द्वारा अपने को और जगत को देखना चाहिए। अपने स्वरूप को भी निश्चय से देखना, उसका स्वरूप अभेद त्रिकालस्वरूप है, वैसा दृष्टि में लेना। (फिर) विशेष बात की है। जहाँ तक विचार है, वहाँ तक मन का विकल्प है। वह इस प्रकार के, हाँ! जब विचार करने पर मन स्थिर हो जाए तब सहजस्वरूप में रमणता हो जाती है, स्वानुभव हो जाता है, इससे ही बहुत कर्मों की निर्जरा होती है, इसकी प्राप्ति को मोक्षमार्ग जानो, जब-जब स्वानुभव तब-तब मोक्षमार्ग । मोक्षमार्ग त्रिकाल कायम तो है परन्तु स्वानुभव उपयोग हुआ तब मोक्षमार्ग हुआ ।
स्वानुभव के अतिरिक्त मन के विचार को और शास्त्र पठन को या काया के आचरण को, महाव्रत- अणुव्रत के पालन को मोक्षमार्ग कहना यथार्थ नहीं है, व्यवहारमात्र है । कथनमात्र है। भाई ! क्या करे ? स्वतन्त्र जीव है, उसे भी अनन्त तीर्थङ्कर आवे तो भी न बदले – ऐसा है और जब सुलटा पड़े, तब अनन्त परीषह आवे तो भी नहीं डिगे - ऐसा है । इन दोनों में आत्मा अडिग है, उसका इतना वीर्य है। 'अनुभवप्रकाश' में लिया है न ? भगवान ! तेरी शुद्धता तो बड़ी है परन्तु तेरी अशुद्धता भी बड़ी है। दीपचन्दजी लिया है। तेरी अशुद्धता भी बड़ी, अनन्त तीर्थङ्कर आवे, ज्ञानी आवे और समझावे तो भी तू अशुद्धता छोड़ दे - ऐसा नहीं है। तू छोड़े उस दिन छूटेगी। समझ में आया ? सम्यग्दृष्टि