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वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण ११,
गाथा ८६ से ८७
गुरुवार, दिनाङ्क १४-०७-१९६६ प्रवचन नं.३४
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'योगीन्द्रदेव' मुनि दिगम्बर आचार्य हुए हैं। छठवीं शताब्दी – १३००-१४०० वर्ष पहले हुए, उन्होंने योगसार बनाया। योगीन्द्रदेव ८६वीं गाथा में कहते हैं, एक आत्मा का मनन करो। देखो!
एक्कलउ इन्द्रिय-रहियउ-मण-वय-काय-ति-सुद्धि। अप्पा अप्पु मुणेहि तुहुं लहु पावहि सिव-सिद्धि॥८६॥
यह शब्द पड़ा है। हे भाई! तू अकेले आत्मा को देख! इन्द्रिय से रहित, कर्म, शरीर के सम्बन्ध से रहित... । भगवान आत्मा में परमार्थदृष्टि से शरीर, कर्म और विकार के सम्बन्धरहित आत्मा अकेला है। ऐसा इन्द्रिय से रहित मण वय काय ति सुद्धि और मन -वचन-काया से भी हटकर अपनी शुद्धि अपने स्वभाव के सन्मुख करके, अपना ध्यान करना, उसका नाम मोक्ष का मार्ग योगसार है । मुनि को तो उत्कृष्ट होता है । यह कल आ गया है, कि लज्जा का भाव हृदय में से न मिटे, तब तक इस ऊँचे पद का ग्रहण नहीं करना। ऐसा आया था।
श्रावक पद में रहकर एकदेश आत्मध्यान का साधन करना। अपने को इस शब्द पर थोड़ा लेना है। गृहस्थाश्रम में भी श्रावक है तो एकदेश आत्मध्यान का साधन कर सकता है। समझ में आया? नियमसार में समाधि अधिकार' के बाद भक्ति अधिकार' आयेगा। यह तो कुन्दकुन्दाचार्यदेव के पहले श्लोक में मूल पाठ है। श्रावक हो या मुनि हो, निश्चयशुद्धरत्नत्रय की भक्ति दोनों करते हैं - ऐसा पाठ भक्ति अधिकार में मूल गाथा में है। श्रावक हो या मुनि हो, शुद्धरत्नत्रय की भक्ति – ऐसा पाठ है। टीका में मूल पाठ में इतना है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र रत्नत्रय की भक्ति करते हैं। यह निश्चयरत्नत्रय की बात है।