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गाथा-८६
निर्ग्रन्थ हुआ। राग की एकता की गाँठ टूट गयी। राग की एकता की गाँठ टूट गयी, पृथक् हो गया और स्वभाव की पर्याय स्वभाव में एकत्व हो गयी तो दृष्टि में तो निर्ग्रन्थ ही हो गया परन्तु चारित्र में निर्ग्रन्थ कब होता है ? उस अस्थिरता को छोड़कर जब स्थिर हो जाता है. (तब) चारित्र में निर्ग्रन्थ होता है। समझ में आया? यह निर्ग्रन्थ तो आत्मा का स्वरूप है। 'नियमसार' में 'शुद्धभाव अधिकार' में आया है, भाई! 'शुद्धभाव अधिकार' - निर्ग्रन्थ तो आत्मा का स्वरूप ही है।णिग्गंथो णिदंडोणिद्वंदो तीनों काल, हाँ! नियमसार शुद्धभाव अधिकार की गाथा है। णिग्गंथो णिदंडो णिद्वंदो दण्डरहित, द्वन्द्वरहित, देहरहित उसका निर्ग्रन्थस्वरूप ही है, आत्मा का स्वरूप ही निर्ग्रन्थ है। निर्ग्रन्थ अर्थात् रागरहित, विकल्परहित । कर्मरहित तो है ही। (क्योंकि) वह तो परद्रव्य है। विकल्परहित है, यह दृष्टि कौन स्वीकारे? सहितपने होने पर भी, रहित मानना... आहा...हा...! व्यवहार से कर्मसहित, रागसहित । रागरहित (है वह) दृष्टि का जोर है। समझ में आया? नहीं, मैं तो राग और शरीर, कर्म से रहित हूँ। अरे! परन्तु अभी नहीं... अरे...! अभी (ऐसा हूँ)। निश्चयदृष्टि में समय-समय में ऐसा ही त्रिकाल है । व्यवहार वह ज्ञान करने की चीज है कि राग है। कहा न, जाना हुआ प्रयोजनवान है । जाना हुआ प्रयोजनवान है, आदर किया हुआ प्रयोजनवान है – ऐसा नहीं। वस्तुस्थिति ऐसी है। वरना किसी प्रकार वस्तु सिद्ध नहीं होती। निश्चय-व्यवहार एक भी सिद्ध नहीं होता। समझ में आया? हो गया (समय)!
ऊँचा-आत्मध्यान निर्ग्रन्थ व निर्विकार हुए बिना नहीं हो सकता।जहाँ तक काम-विकार की वासना न मिटे, स्त्री-पुरुष का भेद न मिटे, लज्जा का भाव दिल से न हटे, वहाँ तक इस ऊँचे पद को ग्रहण न करे... ऐसा कहते हैं । एकदम मुनिपना (आने के लिए) ऐसी शक्ति चाहिए। ऐसे एकदम नग्न हो जाए, शीघ्रता से व्रत ले ले, निभ नहीं सके, फिर कुछ गड़बड़ किये बिना रहे नहीं। अपनी शक्ति को (देखकर ग्रहण करे) शक्तितप त्याग है। आता है न, पण्डितजी! यह वहाँ विवेक है। मर्यादा में अपना कितना पुरुषार्थ सहज काम करता है, उतना त्याग करके अपना काम करना। विशेष मुनिपना न हो सके तो गृहस्थाश्रम में अपनी शक्ति अनुसार ध्यान करके अपना काम करना - ऐसा यहाँ कहते हैं।
(श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव!)