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गाथा-८६
मुमुक्षुः ........
उत्तर : अपने स्वरूप की एकाग्रता वह भक्ति है, भगवान की भक्ति, वह शुभराग है, व्यवहारभक्ति है।
यहाँ तो दूसरा कहना है कि श्रावक को भी अपने शुद्धनिश्चयरत्नत्रय का ध्यान होता है और प्रगट दशा होती है। कोई कहे कि मुनि को ही सातवें गुणस्थान में शुद्धरत्नत्रय होता है, अभी सातवें में भी नहीं लेते। यहाँ तो कहते हैं कि श्रावक को भी, समझ में आया? देखो, इसमें है। १३४ गाथा है न! भक्ति अधिकार – सम्मत्तणाणचरणे जो भत्ति कुणइ सावगो समणो।सावगो समणो – ऐसा पाठ है । सम्मत्तणाणचरणे जो भत्ति कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदिभत्ती.... निवृत्ति भक्ति। होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं॥१३४॥भगवान परमेश्वर वीतरागदेव त्रिलोकनाथ ऐसा कहते हैं, श्रावक और मुनि दोनों को निश्चयशुद्धरत्नत्रय अपना भगवान आत्मा शुद्ध निर्मल-निर्विकल्प दृष्टि से अपनी प्रतीति करना और स्वसंवेदन - अपना ज्ञानस्वरूप भगवान, उसका ज्ञान से स्वसंवेदन करके ज्ञान करना और अपने स्वरूप में शुद्ध उपयोगरूप अथवा शुद्धपरिणतिरूप आचरण करना, उसका नाम निश्चयरत्नत्रय कहते हैं । आहा...हा...! यहाँ श्रावक को कहते हैं । देखो! टीका में भी ऐसा लिया है।
निज परमतत्त्व के सम्यक्श्रद्धान-अवबोध-आचरणस्वरूप शुद्धरत्नत्रय परिणामों का जो भजन, वह भक्ति है... श्रावक भी कर सकता है और मुनि भी; श्रावक और परम तपोधन दोनों रत्नत्रय की भक्ति करते हैं। जिनवरों ने ऐसा कहा है। थोड़ी सूक्ष्म बात है। यहाँ से निश्चयरत्नत्रय की बात है, उसे शुद्धरत्नत्रय कहते हैं। व्यवहाररत्नत्रय को अशुद्धरत्नत्रय कहो, बाह्यरत्नत्रय कहो, उपचरितरत्नत्रय कहो। परम अपेक्षा से उसे असत्यार्थ भी कहो। व्यवहार असत्यार्थ... असत्यार्थ का अर्थ उसे गौण करके, है नहीं - ऐसा नहीं, व्यवहार है अवश्य परन्तु उसे गौण करके, व्यवहार कहकर अभूतार्थ कह दिया है।
भगवान आत्मा एक समय में पूर्णानन्द प्रभु है। उसकी अन्तर में अनुभव दृष्टि करना, अनुभव करके दृष्टि होना और स्वरूप में स्थिरता होना - ऐसी निश्चयशुद्धरत्नत्रय