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गाथा-८६
जब सर्व चिन्ताएँ मिटती हैं, तब ही मन स्थिर होकर सङ्कल्प-विकल्परहित होकर अपने आत्मा के शुद्धस्वभाव का मनन कर सकता है। थोड़ी भी शल्य रहेगी कि यह ऐसा, यह ऐसा (है), वह शल्य मिथ्यात्वशल्य है तो अन्दर में नहीं जा सकेगा। परवस्तु में उत्साहित वीर्य काम करे, राग में, पुण्य में, संयोग में तो वह वीर्य वहाँ रुक गया, वह अन्तर में काम नहीं करेगा। समझ में आया ? पहले वीर्य में से यह निकाल देना चाहिए कि राग और परवस्तु मुझे बिलकुल सहायता नहीं करते। मेरी सहायक मेरी चीज है। सदा सहायकपना उसमें पड़ा है, तीन काल-तीन लोक में करण / साधनगुण उसमें रहा हुआ है।
मुमुक्षु : सम्यग्दृष्टि को शुभभाव तो होता है ?
उत्तर : सम्यग्दृष्टि को शुभभाव होता है वह एकान्त बन्ध का कारण है । एकान्त आस्रव है। कहो ! सिद्ध को आया न ? प्रवचनसार आया, सिद्ध को एकान्त शुद्धता है... नहीं आया ?
मुमुक्षु : मिथ्यादृष्टि को तो बन्ध का कारण है परन्तु सम्यग्दृष्टि को तो वे काम के हैं ?
उत्तर : मिथ्यादृष्टि... सम्यग्दृष्टि को काम के बिलकुल नहीं। निमित्तरूप राग है, दूसरा कुछ नहीं । ज्ञानधारा में वह विघ्नधारा है। भाई ! वह विघ्नधारा है, भाई ! कर्म के लक्ष्य से उत्पन्न होता है, वह तो कर्मधारा है, वह स्वभावधारा नहीं है। समकिती को हो या मुनि को हो कोई लाभ नहीं । उसका ज्ञान करने का लाभ है, प्रमाण ज्ञान करने का । यह निश्चय का ज्ञान हुआ (साथ में) राग का व्यवहार का ज्ञान (हुआ)। प्रमाणज्ञान हुआ, इतना । बा तो यह है, दूसरा क्या है ? दूसरा लाना कहाँ से ? जैसा सत्य स्वरूप हो, उस प्रकार आयेगा या दूसरा आयेगा ? तीन काल-तीन लोक में सत्य पन्थ एक ही प्रकार का है ।
मुमुक्षु : सम्यग्दृष्टि को किञ्चित् लाभ तो अवश्य है न ?
उत्तर : बिलकुल लाभ नहीं है, जितना स्वाश्रय है उतना लाभ है । ' एक होय तीन काल में परमारथ का पन्थ' । सर्वज्ञ परमेश्वर त्रिलोकनाथ भरत, ऐरावत या महाविदेह हो, पन्थ तो एक ही है।