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योगसार प्रवचन (भाग-२)
१७५ है, किञ्चित् लाभ है, कुछ लाभ है (ऐसा रह जाएगा) तो दृष्टि वहाँ से हटेगी नहीं - ऐसी वस्तु है। हो, व्यवहार हो, उससे कौन इनकार करता है ? परन्तु यदि उसकी रुचि रह गयी तो अन्तरङ्ग में (नहीं जाया जा सकेगा)।
वीर्य का काम ही यह है कि स्वरूप की रचना करना । वीर्य का काम राग की रचना करना ऐसा है ही नहीं। सैतालीस शक्तियाँ हैं, पण्डितजी ! सैंतालीस शक्तियाँ आती हैं न? उसमें ऐसा लिया है, वीर्यगुण किसे कहते हैं ? भगवान अमृतचन्द्राचार्यदेव कहते हैं - वीर्य, स्वरूप की रचना करे, उसे हम वीर्य कहते हैं। भगवान आत्मा अपने अनन्त गुण की निर्मल रचना पर्याय में करे, उसका नाम वीर्य है। राग रचना (होती है) वह वीर्य अपना वीर्य है ही नहीं। है तो अपना पुरुषार्थ, हाँ ! परन्तु वह कृत्रिम है, दोष है, इसलिए गिनने में नहीं आया है। शास्त्र में ऐसा लिया है ! भगवान ! सैंतालीस शक्ति का वर्णन अलौकिक वर्णन है।
वीर्यगुण का कार्य क्या? स्वरूप की रचना। तो क्या राग अपना स्वरूप है? व्यवहार रचना, वह वीर्य का कार्य है? सम्यक् वीर्य अपना है, उसका कार्य है ? आत्मा के वीर्य का वह काम है? समझ में आया? ऐसी बात बाहर प्रसिद्ध हो तब कहते हैं, घर का अर्थ करते हैं । ऐसा कहते हैं भाई ! ऐसा नहीं है, भाई! यह तो अन्दर लिखा है, उसके भावों को गूढरूप है, उसे खोलते हैं, खोले हैं, दूसरा कुछ नहीं है। घर की एक बात नहीं है। आहा...हा...! परन्तु इसे अन्दर ऊँचा न हो, इसलिए समझ में नहीं आता, इसलिए दूसरा अर्थ करता है। क्या करें? स्वतन्त्र जीव है। भाई! अनन्त काल से इसने ऐसा ही किया है। तीर्थङ्कर के जीव ने ऐसा किया है। क्यों पण्डितजी! तीर्थङ्कर के आत्मा ने पहले ऐसा किया था न? पहले अज्ञान में ऐसा किया था। नौवें वेयक गया उसने ऐसा ही किया था। समझ में आया?
(यहाँ) कहते हैं, गृहस्थ का व्यवहार धर्म... देखो, यह व्यवहार धर्म कैसा है ? कि मन-वचन-काया को चञ्चल और राग-द्वेष से पूर्ण आकुलित रखना पड़ता है... व्यवहार धर्म में आकुलता है, विकल्प है, भाई! और पाँच इन्द्रियों के भोगों में फँसना पड़ता है... पर की तरफ लक्ष्य जाता है न?