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गाथा-८५ सुद्धादेसो णादव्वो परमभावदरिसीहिं। वहाँ यदात्वे ऐसा संस्कृत में पाठ है । यदात्वे उस काल में जाना हुआ प्रयोजनवान है। जब तक सर्वज्ञ न हो, तब तक (जाना हुआ प्रयोजनवान है)।
मुमुक्षु : किया हुआ प्रयोजनवान् नहीं?
उत्तर : किया हुआ नहीं। करे क्या? जाना हुआ प्रयोजनवान है। तेरहवें वर्ष में इन्दौर में भी कहा था, व्याख्यान हुआ था, तब बंशीधरजी' थे न? सोलापुर के, वे आये थे, हम वहाँ उतरे थे न, क्या कहलाता है वह ? नसियाजी... नसियाजी... । पहले वहाँ उतरे थे, वहाँ आये थे। पहले तो आकर कहा मैं अभिनन्दन देता हूँ। (मैंने कहा) क्या है? ऐसे साधारण गरीब जैसे लगते हैं। पण्डितजी आये हैं – ऐसा पता नहीं (आकर) पैरों में गिर गये (और कहा) अभिनन्दन देता हूँ। कहा क्या है ? तुम कौन हो? बंशीधरजी ! कहाँ के ! अरे... पण्डितजी ! आपने कहा व्यवहार जाना हुआ प्रयोजनवान है, ऐसी बात अभी तक तो हमने सुनी नहीं। व्यवहार है यदात्वे उस काल में... उस काल में अर्थात् उसमें विशेषता है। जितना स्वभाव का आश्रय करके शुद्धता प्रगट हुई, वह तो निश्चय है और जितना अभी राग बाकी रहा, उतनी शुद्धता की अल्पता और राग का ज्ञान करना उस काल में, फिर शुद्धता की वृद्धि हुई और राग घटा तो उस काल में उतना ज्ञान करना, वह प्रयोजनवान है। उतनी-उतनी जैसे जैसे शुद्धि बढ़ती जाए और राग घटता जाए, उस प्रकार का ज्ञान वहाँ करना, वह प्रयोजनवान है। उस-उस काल में वैसा ज्ञान करना, वह प्रयोजनवान है। समझ में आया? भाई ! वस्तु की स्थिति ऐसी है।
व्यवहार है तो निश्चय है – ऐसा नहीं है, दोनों में अन्तर है। दोनों की दिशा में अन्तर है। दोनों के फल में अन्तर है और दोनों के भाव में अन्तर है, भाई ! क्या हो? यह कहाँ कोई वस्तु बदली जा सके ऐसी है ? कि भाई! नहीं... नहीं... यह सबको ठीक लगे तो ऐसा कहो। भाई! तुझे ठीक ही इसमें पड़े ऐसा है, हैं ? आहा...हा...! आत्मा शुद्ध प्रभु आत्मा है । तुझे कहीं ठीक न लगे तो वहाँ ठीक लगे ऐसा अन्दर में है।
___ बहिन ने (बहिनश्री ने) एक बार कहा था, कहीं न रुचे तो आत्मा में रुचे ऐसा है, समझ में आया? आहा...हा...! पता है ? बात तो यही है, शब्दों में फेर है। आत्मा,