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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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भगवान की वाणी में ऐसा आया कि तेरी वस्तु भगवान अखण्ड अभेद की दृष्टि कर, अनुभव कर । यही गुरु की वन्दना है, यह गुरु की वन्दना है । आहा... हा...! भगवान कहते हैं कि यह गुरु की वन्दना है। यह बाहर से गुरु की वन्दना करते हैं, वह तो विकल्प है, व्यवहार है, पराधीनता है । यह होता है, वह अलग बात है परन्तु वह वस्तुस्थिति नहीं... होता है, व्यवहार बीच में आता है। जब तक निश्चय में पूर्णता प्राप्त न होवे, तब बीच में व्यवहार आये बिना नहीं रहता । राग आता है, भक्ति, स्तुति, वन्दन, पूजा ( का भाव आता है) परन्तु उसकी मर्यादा पुण्य-बन्ध की है। उससे आगे ले जाओ तो वस्तुस्थिति में वह समाहित नहीं हो सकता। समझ में आया ? लो, यह वन्दना हुई, ठीक !
अपने में स्थिरता कर ले, वही निश्चय कायोत्सर्ग है। यह कायोत्सर्ग हुआ। यह अपने आगे आ गया है, नियमसार में आ गया, कायोत्सर्ग । सात गाथा है । कायोत्सर्ग योग का। यह योगसार है तो इसमें भगवान ने योग लिया है। आत्मा पूर्णानन्द प्रभु अभेद वस्तु में जुड़ा करना । योग ... योग... योग... जुड़ान (करना) बस! उसका नाम कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग... आत्मा... एकान्त हो जाता है, ऐसा कहते हैं । हमारे व्यवहार का तो कोई मूल्य नहीं रहता... व्यवहार से कुछ लाभ होता है, यह कुछ नहीं कहते ) । भगवान ! व्यवहार है तो निश्चय है - ऐसा नहीं है ।
मुमुक्षुः कर्म तो कम बँधते हैं न ?
उत्तर : बिलकुल कम नहीं। वह तो स्वभाव का आश्रय हुआ, उतना बन्धन घट गया है।
मुमुक्षु : व्यवहार है तो निश्चय है ?
उत्तर : व्यवहार है तो निश्चय है - ऐसा नहीं है । राग की मन्दता है तो अग परिणमन है, ऐसा है? ऐसा नहीं है, परन्तु व्यवहार बीच में आये बिना नहीं रहता । आहा...हा... ! पूर्ण आश्रय जब तक न हो, भगवान आत्मा का पूर्ण आश्रय जब तक न हो, तब तक वहाँ पराश्रय में भगवान कहते हैं वैसा व्यवहार आये बिना नहीं रहता परन्तु उसकी मर्यादा जानता है। उस काल में जाना हुआ प्रयोजनवान है - ऐसा अमृतचन्द्राचार्य महाराज (समयसार में) बारहवीं गाथा में कहते हैं । पण्डितजी ! बारहवीं गाथा है न ? सुद्धो