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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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भगवान आत्मा, तुझे कहीं ठीक न लगे तो जा अन्दर ! समझ में आया ? तेरे हाँकने से कोई साथ न आवे तो तू अकेला जाना, तुझे किसी का क्या काम है ? कि अरे... ! हम ऐसी बात करते हैं और यह (मानते नहीं) अब तुझे काम क्या है ? हाँकल, वाणी जड़ है, विकल्प है वह बन्ध का कारण है कोई समझे न समझे वह कोई तेरे आश्रित नहीं है। कहो, समझ में आया ?
'अकेला जाना रे' आता है न कहीं ? नहीं ? क्या आता है ? 'मेघाणी', 'नहीं', मूल तो ‘रविन्द्रनाथ टैगोर' का है। वह तो उनकी शैली से बात है, अपनी दूसरी शैली है, हाँ ! 'तेरी पुकार सुनकर कोई न आवे तो अकेला जाना रे...' यह श्लोक अभी आयेगा, यह आयेगा। एक्कलउ यह छियासी (गाथा में भी ) आयेगा । छियासी गाथा का पहला शब्द है । यह पिच्चासी (गाथा) अपने चलती है न ? छियासी में है । पण्डितजी ! छियासी है न ? यह गाथा एक्कलउ यह छियासी गाथा है । अपने पिच्चासी चलती है। एक्कलउ इंदिय रहियउ अकेला इंदिय रहियउ भगवान !
योगसार तो अलौकिक बात । दिगम्बर सन्तों की क्या बात ! ओ... हो... ! इनके तो एक-एक श्लोक में चौदह पूर्व का सार है । सन्त, जिनकी अन्तरदशा छठवें - सातवें ... आहा...हा...! क्षण में अन्तर्मुहूर्त में, यह अन्तर्मुहूर्त अर्थात् पौन सेकेण्ड कहलाता है । असंख्य समय को भी अन्तर्मुहूर्त कहते हैं, छोटे को । परन्तु वह पौन सेकेण्ड रहा । परन्तु अन्तर्मुहूर्त कहलाता है, असंख्य समय है। पौन सेकेण्ड में भी असंख्य है, हाँ ! और इससे आधा काल सातवें का । क्षण में अतीन्द्रिय आनन्द, क्षण में यह (विकल्प) ; क्षण में यह (आनन्द) । एक दिन में हजारों बार छठा - सातवाँ यह भी कोई बात ! प्रतिक्षण साक्षात् परमात्मा का स्पर्श करते हैं, वह तो फिर मन्द पुरुषार्थ है, इसीलिए शीघ्र विकल्प उठता है । छठवें का प्रमाद विकल्प वह बन्ध का कारण है । इतम... इतम... ऐसा जाता है। ऐसे जाए वहाँ सातवाँ, ऐसी दशा मुनि की। उन्होंने यह श्लोक बनाये हैं, लो ! बनाये हैं अर्थात् उनका निमित्त है। समझ में आया ?
वही निश्चय कायोत्सर्ग है... कहो, ठीक! यह तीन गुप्ति भी यह है, भगवान आत्मा! अपने निज स्वरूप में अन्दर में सावधान... सावधान... सावधान... होकर, दृष्टि