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गाथा-८५
जहाँ चेतन तहाँ अनन्त गुण, केवली बोले एम।
प्रगट अनुभव आपनो, निर्मल करो सो प्रेम॥ चेतन प्रभु चैतन्य सम्पदा रे तेरे धाम में... प्रभु! तेरे धाम में अनन्त सम्पदा विराजमान है। बैकुण्ठपना तेरे धाम में विराजमान है। आहा...हा...! वे बैकुण्ठ वहाँ ढूँढने जाते हैं। 'मथुरा' में है और अन्य कहे यहाँ है अथवा यहाँ है । यह कहता है मुक्तिशिला में है। यहाँ है। समझ में आया? आहा...हा... ! सन्तोष रखने से आत्मा में ही निश्चय अचौर्यव्रत है।
भगवान आत्मा, परपदार्थ में एकाकार नहीं होकर परम ब्रह्मस्वरूप आत्मा में विहार करने लगा। स्वभाव की दृष्टि करने से एकाकार हुआ, वह ब्रह्मवत हुआ। ब्रह्मानन्द भगवान में एकाकार हुआ, वह ब्रह्मव्रत हुआ। पर्याय में ब्रह्मव्रत आ गया। निश्चय ब्रह्मव्रत, हाँ।
सर्व विकार और मूर्छा का त्याग... भगवान आत्मा में शुद्ध दृष्टि हुई, अनन्त गुण के पिण्ड को पकड़ लिया तो सर्व विभाव और पर की मूर्छा मिट गयी, वही अपरिग्रहव्रत की परिणति है। आत्मा में निवृत्तरूप परिणमन हुआ, असंगभाव में रमण करने से परिग्रह त्याग व्रत भी हुआ। उसमें क्या नहीं आता? समझ में आया?
जब आत्मा, आत्मा में सत्यभाव से स्थिर हुआ तो निश्चय सामायिक भी आ गयी। लो, सामायिक (आयी)। कल सामायिक आयी थी न तत् सामायिक होई केवली भाखे ऐम' भाई! तेरे क्षेत्र में कहाँ गुण की हीनता है ? तेरे क्षेत्र में कहाँ गुण की कमी है कि अपने क्षेत्र के सिवाय दूसरे क्षेत्र में तुझे ढूंढना है। समझ में आया?
भगवान असंख्य प्रदेशी प्रभु, परम पारिणामिक स्वभावभाव का द्रव्यस्वभाव पिण्ड है। उदय आदि है, वे एक समय के हैं, भले वे असंख्यप्रदेश में व्यापक हैं । उदय-उपशम -क्षयोपशम क्षायिक, ये असंख्य प्रदेश में व्यापक हैं परन्तु उनकी स्थिति एक समय की है और भगवान त्रिकाल अनन्त गुण के पिण्डरूप परिणमन स्वभाव, वह है असंख्य प्रदेश में परन्तु उसकी स्थिति त्रिकाल है। समझ में आया? ऐसा भगवान त्रिकाल असंख्यप्रदेश में परम पारिणामिक अनन्त गुण का संग्रह रखता है। संग्रह... संग्रह... यह भगवान (आत्मा) संग्रहालय है। अनन्त गुण का संग्रहालय! आहा...हा...! यह बाहर के दाने,