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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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भगवान ने क्या किया है ? भगवान ने बनाया है ? कहा है इसलिए बनाया है ? उन्होंने तो जाना वैसा कहा, वैसी वस्तु ही है, अनादि की वस्तु है, उसमें तुझे क्या (करना है)? उसमें गड़बड़ करे तो नहीं चलेगा। आहा...हा...!
कहते हैं भगवान आत्मा इन राग-द्वेष के अभाव से अपने स्वरूप में एकाकार हुआ। जहाँ चेतन, वहाँ अनन्त गुण' उसमें यह जरा सी पर्याय लेते हैं । गुण तो अनन्त हैं, परन्तु अपने स्वरूप की एकाग्रता करने से वहाँ अहिंसा (होती है)। एक-एक गुण की, अहिंसा गुण की पर्याय भी प्रगट होती है। वह स्व का आश्रय करने से, स्व का आश्रय करने से अहिंसा की पर्याय भी प्रगट होती है। उसमें कोई (गुण) बाकी नहीं रहता।
सर्व असत् परपदार्थों के त्याग से और सत् निजपदार्थ के यथार्थ ग्रहण से आत्मा में ही निश्चय सत्यव्रत है। भगवान सत्स्वरूप परमात्मा, सत्यस्वरूप, सत्साहेब का अन्तर परमात्मा का दृष्टि में अनुभव किया तो उसमें परम सत्यव्रत भी आ गया। परम सत्यव्रत, व्यवहार सत्यव्रत का विकल्प वह तो (राग है)।आहा...हा... ! परम सत्य का स्वीकार, परम सत्य का स्वीकार, परम पूर्णानन्द का स्वीकार और उसकी परिणति हुई तो उस परिणति की पर्याय में परम सत्य महाव्रत भाव भी प्रगट हो गया. निश्चय सत्यमहाव्रत आ गया। आहा...हा...! समझ में आया? यह सब हिन्दी (लोग आये हैं) तो हिन्दी में (व्याख्यान) करते हैं। दोपहर में गुजराती में करते हैं, उसमें थोड़ा सा हिन्दी आता है न इसलिए हिन्दी रखा है। दोपहर में गुजराती। यहाँ तो हिन्दी है, इसका हिन्दी अर्थ करना और फिर गुजराती करना। यह करने से कहा ऐसा लगाओ। आहा...हा...! भाषा निकलने की हो वैसी निकलती है। समझ में आया?
पुद्गल आदि गुण-पर्याय, राग की चोरी नहीं करते। भगवान आत्मा अपने अनन्त गुणरूप से विराजमान प्रभु, उसकी अनुभव में दृष्टि करके जहाँ अनुभव हुआ तो राग की पर्याय को अपने में नहीं लिया तो महा अचौर्यव्रत प्रगट हुआ। आहा...हा...! एक राग का कण भी अपने में नहीं लिया और त्रिकाल आनन्दकन्द भगवान की निर्मल अचौर्यदशा प्रगट हुई। पर को पकड़े बिना अपनी पकड़ की और पर की पकड़ छोड़ दी। आहा...हा...! समझ में आया?