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गाथा-८५
एकाकार होकर अनुभव होता है, वही सच्ची दया है, अपनी दया है। समझ में आया? बात ऐसी है, भाई!
मुमुक्षु : दया तो किसी की पलती है न?
उत्तर : दया अपनी पाले, किसी की पाल नहीं सकता। (पर की दया पाले वह) बात ही मिथ्या है। परद्रव्य की अवस्था आत्मा तीन काल में नहीं कर सकता। क्या परद्रव्य वर्तमान पर्याय से रहित खाली है ? 'पर्याय विहूम द्रव्यं' पर्यायरहित द्रव्य है कि उसकी पर्याय दूसरा कर दे? कल यह आया था। 'पज्जम् विहूणं द्रव्यं, द्रव्यं विहूणं पज्जम्' महासिद्धान्त, महासिद्धान्त। कोई भी पदार्थ किसी भी समय पर्यायरहित नहीं होता। भगवान ! अब तुझे क्या करना है ? तुझे दूसरी पर्याय करना है? वह द्रव्य पर्यायरहित है ? और तू भी तेरी पर्याय बिना का द्रव्य है ? कि तेरा कार्य किये बिना रहे ? आहा...हा...!
यह तो बहुत स्पष्ट तो आया है, भाई! इतनी अधिक बात बहुत आ गयी है। शास्त्रों के अर्थ, स्पष्टीकरण तो बहुत (हो गये हैं)। चार लाख साठ हजार तो बाहर आ गयी है। चालीस हजार तो इस वर्ष छपना है। वे कहते हैं, ऐई...! एकान्त है... एकान्त है। उदयपुर' में तेरहपन्थ में पढ़ते थे न? उन्हें कहे एकान्त है जाओ। बन्द करो, बीस पन्थियों ने तो बन्द कर दिया है। अरे... भगवान ! भाई!! एकान्त है, सोनगढ़ का साहित्य एकान्त है। तेरा पन्थी अकेले में कहते हैं – ऐसा खुल्ला नहीं कहते हैं। अरे... प्रभु! तूने सुना नहीं है। प्रभु ! तेरा पन्थ, तेरा पन्थ - भगवान का पन्थ क्या है ? ओहो...हो...! उसे बात ऐसी लगती है कि राग से आत्मा में कुछ लाभ होता है और निमित्त से कार्य में कुछ फेरफार होता है तो निमित्त की निमित्तता रहती है और राग-शुभराग से आत्मा में कुछ लाभ होता है तो शुभराग की शुभरागता रहती है। भगवान ! ऐसा नहीं है, हाँ! आहा...हा...!
मुमुक्षु : अशुभ में से बचता है।
उत्तर : अशुभ से बचे वह वास्तव में तो स्वरूप की दृष्टि के कारण से बचता है। वरना तो जहाँ दृष्टि राग के ऊपर है, वहाँ बचा कहाँ से? मिथ्यात्वभाव तो है। राग की रुचि है, वहाँ मिथ्यात्वभाव तो है तो अशुभ तो मिथ्यात्व है, बचा कहाँ से? आहा...हा...! भाई मार्ग ऐसा है, हाँ! यह कोई कल्पना की बात नहीं है, वस्तु ही ऐसी है, उसमें करना क्या?