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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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चाय और शक्कर संग्रह करते हैं, उसे संग्रह कहते हैं? संग्रह करते हैं । यह तो अनन्त गुण का संग्रहालय, कितने अनन्तानन्त केवली भी एक-एक समय में असंख्य गुण की बात करें, एक समय में तो उनकी करोड़ पूर्व की स्थिति आठ वर्ष में इतने नहीं कह सकते। स्वभाव है न! वस्तु और स्वभाव... वस्तु स्वभाववान । स्वभाव, वस्तुस्वभाव रहित होती है? स्वभाव।
ऐसा अनन्तगुण का पिण्ड प्रभु, उसमें एकाकार होने से, कहते हैं कि सत्यभाव का आदर हुआ। सत्यरूप स्वभाव भगवान आत्मा की एकाग्रता हुई, यह सत्य का आदर हुआ, वह सामायिक है। जब वीतरागता हुई, आत्मा की दृष्टि करके अनुभव किया, जहाँ आत्मा वहाँ अनन्त गुण... तब भूतकाल के बँधे हुए कर्मों के प्रति वीतरागता होती है और वे कर्म स्वयं निर्जरा को प्राप्त होते जाते हैं, इसलिए वहीं निश्चयप्रतिक्रमण है। निश्चयप्रतिक्रमण हुआ। भगवान आत्मा अपना अनन्त गुणरूप एक द्रव्यस्वरूप का अनुभव करने से उसकी पर्याय में भूतकाल के रागादि का नाश हो गया। निवृत्तरूप परिणमन हुआ, वही निश्चयप्रतिक्रमण है। समझ में आया?
भविष्य में होनेवाले विभावों का भी त्याग हुआ... उसका नाम निश्चयप्रत्याख्यान है। अपने यह सब आ गया है। पहली गाथा, नियमसार, नहीं? कौन-सी गाथा? समाधि पहले की न? प्रायश्चित्त? प्रायश्चित्त की पहली गाथा। व्रत, नियम सब (लिया है) मूल पाठ – पाँच महाव्रत, गुप्ति और समिति सब आत्मा की पर्याय में समा जाते हैं। निर्मल, हाँ! यह आ गया है। मूल पाठ में है। निश्चय... निश्चय... समझ में आया? भगवान आत्मा में अन्तरस्वरूप का आश्रय किया (वहाँ) उसकी दशा में क्या कमी रह गयी? ऐसा कहते हैं। सभी गुण, जितना तुम कहते हो उन सब गण की पर्याय का परिणमन प्रगट हो गया। समझ में आया?
एकाग्रभाव में लीन है... भगवान आत्मा अपने गुणों में अथवा गुणी में एकाग्र है। वही (गुण की)निश्चय स्थिति है। इसका नाम स्तुति हुई। समयसार ३१ गाथा में कहा है न? कुन्दकुन्दाचार्यदेव को पूछा – प्रभु! केवली की स्तुति किसे कहते हैं ? भगवान ! केवलज्ञानी की स्तुति आप किसे कहते हैं ? तो उत्तर देते हैं। हम तो पूछते हैं कि