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गाथा-८४
भरपूर है । अतीन्द्रिय आनन्द का भाव चैतन्य में ठसाठस भरा है, अरूपी के लिए बड़े क्षेत्र की आवश्यकता नहीं है। वह तो इसमें महा सामर्थ्य है। आहा...हा...! अतीन्द्रिय आनन्द का रस-कश... सम्पूर्ण असंख्य प्रदेशों में सराबोर... सराबोर है। जैसे अतीन्द्रिय आनन्द का भोक्ता है। आहा...हा...! यह भी व्यवहारनय से भेद डालकर कहते हैं।
मुमुक्षु : ठसाठस...।
उत्तर : ठसाठस अर्थात् उसमें दूसरे किसी के प्रवेश होने का अवकाश नहीं है। अरूपी भी दल है या नहीं? क्या? जैसे बर्फ की शिला है। बर्फ की शिला में भी अवकाश है, थोड़ा खाली भाग है। भगवान आत्मा के असंख्य प्रदेश में कोई खाली भाग है ही नहीं। अखण्ड पिण्ड और अनन्त गुण का रसकन्द है। उसमें आकाश के एक प्रदेश में बीच में अवकाश है ऐसा है ही नहीं । आहा...हा...! बर्फ की शिला, समझे। तुम्हें ऐसा लगता है कि बर्फ ऐसा ठसाठस है। अन्दर में आकाश के असंख्य प्रदेश, बहुत सूक्ष्म (प्रदेश) खाली रह जाते हैं। ऐसी बात है। क्योंकि अनन्त स्कन्ध हैं। अनन्त परमाणुओं का एक द्रव्य कहाँ है? स्कन्ध के अन्दर अवकाश रह जाता है। भगवान आत्मा में एक-एक गुण में कोई एक प्रदेश का अवकाश / खाली नहीं है। पूरा अभेद एकाकार (द्रव्य) पड़ा है परन्तु वह आत्मा क्या चीज है ? उसे इसने समझ में लिया ही नहीं। आत्मा का क्या माहात्म्य है ! वह तो परमात्मा का गर्भ है, उसमें से परमात्मा का प्रसव होता है। आहा...हा...! परमात्मा की प्रसूति का घर आत्मा है।
मुमुक्षु : कितने?
उत्तर : अनन्त। आत्मा अनन्त परमात्मा का प्रसव करता है। एक समय का परमात्मा, दूसरे समय का परमात्मा... परमात्मा पर्याय है या नहीं? सिद्ध पर्याय है या नहीं? सिद्ध एक समय की परमात्मा की पर्याय है। दूसरे समय दूसरा परमात्मा, तीसरे समय तीसरा... भले ही वही है, परन्तु है दूसरी पर्याय; ऐसे सादि अनन्त परमात्मा (होवे उन्हें) आत्मा ने अपने गर्भ में रखे हैं, पेट में रखे हैं। आहा...हा...!
मुमुक्षु : पेट खोलकर निकाले तो निकले न। उत्तर : एकाकार होवे तो निकले बिना रहेगी नहीं। है? आहा...हा...! वस्तु तो ऐसी