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योगसार प्रवचन (भाग-२)
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कहते हैं, भगवान! तू तो आत्मा है न प्रभु! तो आत्मा में तो महान... महान... महान... पवित्रता पड़ी है न प्रभु! उस पवित्रता का धाम भगवान है । उस पवित्रतारूप से परिणमित, वह परिणमन हुआ, वह भी उसका व्यवहार हुआ। आहा...हा...! है ? वह परिणमन उसका व्यवहार है और ध्रुव उसका निश्चय है।
कहते हैं कि भगवान आत्मा स्वभाव से तो अकर्ता-अभोक्ता है। रजकण का, पर की दया का (भाव), पर को बचाने का-मारने का कर्ता भगवान आत्मा नहीं होता। भाई ! ऐसा नहीं होता भाई! यह भगवान को कलंक चढ़ता है, उसमें जो स्वभाव नहीं है, उसे ऐसा कहना, प्रभु! उसे कलंक लगता है, भाई! तुझे कलंक लगता है, बापू! उस कलंक का फल, भाई ! नुकसानकारी है परन्तु अब यह बात कैसे हो? यह कोई किसी की दी जा सके ऐसी नहीं है।
भगवान आत्मा ज्ञायक का पिण्ड प्रभु, जिसमें अकर्ता-अभोक्ता नाम का गुण है परन्तु राग का कर्ता और पर का कर्ता – ऐसा कोई गुण नहीं है, तो पर्याय भी नहीं है। यह तो भगवान के देश की बात है। समझ में आया? परदेश में से निकलना हो और स्वदेश में आना हो, उसकी बात है। भगवान आत्मा महान जिसकी शक्ति, कहते हैं कि शक्ति है परन्तु उस शक्ति में कोई एक शक्ति ऐसी नहीं है कि राग की रचना करे, व्यवहाररत्नत्रय का विकल्प, शुभ उपयोग की रचना करे – ऐसा कोई गुण नहीं है। शुभ उपयोग को रचे ऐसा कोई गुण नहीं है तो पर की पर्याय को रखे या मिटाये, उत्पाद करे या व्यय करे, जिलाना अर्थात् उत्पन्न और मरण अर्थात् व्यय, भगवान! वह आत्मा में नहीं है। भाई ! उसके द्रव्य-गुण-पर्याय में तीनों में नहीं है। समझ में आया? ऐसे आत्मा को जाने, तब आत्मा जाना कहा जाता है। आत्मा ऐसा है और उससे विपरीत जाने तो आत्मा को जाना ही नहीं। समझ में आया?
___ वह न तो परभावों का कर्ता है, न परभावों का भोक्ता है। सर्वविशुद्धि में आया है न? भाई ! यह लिया है। आत्मा स्वभाव से अपनी शुद्धपरिणति का कर्ता है... यह भी व्यवहार हुआ। आत्मा में अपनी पर्याय, आत्मा कर्ता और पर्याय कर्म, यह भी उपचार / व्यवहार हुआ। सहज शुद्ध सुख का भोक्ता है... भगवान आत्मा परमानन्द से