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योगसार प्रवचन ( भाग - २ )
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है। इस घड़ी क्या आज ही, ऐसा कहते हैं। 'अमृतचन्द्राचार्य'' प्रवचनसार' में अन्त में दो गाथाओं में कहते हैं। आज । भाई ! बताया था, नहीं ? प्रवचनसार में अन्त में है। आज ही करो, आज ही करो। टाइम की क्या बात है, देखो ! अन्त में है, अन्त में। देखो ! (श्लोक २१) एक सम्पूर्ण शाश्वत् स्व तत्त्व को प्राप्त करके आज ही अव्याकुलपने नाचो । अद्य है न ? वल्गत्वद्य कहते हैं कि वास्तव में पुद्गल ही स्वयं शब्दरूप से परिणमते हैं, आत्मा उन्हें नहीं परिणमा सकता... भाषा को आत्मा तीन काल में नहीं कर सकता । इसलिए ऐसा नहीं जानो कि यह टीका मैंने की है । अमृतचन्द्राचार्यदेव कहते हैं ।
मुमुक्षु : वह तो अभिमान नहीं है, इसलिए कहते हैं ।
उत्तर : अभिमान नहीं; कर ही नहीं सकता ऐसा कहते हैं | कर तो सकता है परन्तु अभिमान नहीं करना - ऐसा लोग कहते हैं, हाँ ! भगवान ! ऐसा नहीं है। भाई ! कर नहीं सकता क्योंकि परमाणु की पर्याय स्वतन्त्र है । अनन्त परमाणुओं में एक-एक में अनन्त गुण की पर्याय का उत्पाद उस समय में होता है । आत्मा क्या करे ?
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स्वयं ज्ञेयरूप प्रमेयरूप परिणमते हैं, शब्द उन्हें ज्ञेय बना कर समझा नहीं सकते। इसलिए आत्मा सहित विश्व वह व्याख्ये ( समझाने योग्य) है, वाणी की रचना वह व्याख्या है और अमृतचन्द्र सूरी व्याख्याता ( व्याख्या करनेवाले समझानेवाले) हैं। ऐसे मोह से मत नाचो । आहा... हा... ! हे जीवों ! ऐसा मत मानो, मैंने व्याख्या की, शब्द किये - ऐसा मत मानो । प्रभु ! यह तो भाषा में स्व-पर वार्ता कहने की ताकत है और आत्मा में स्व-पर को जानने की ताकत है। भगवान आत्मा में स्व-पर को जानने की ताकत है, वाणी में आत्मा या निमित्त की अपेक्षा बिना स्व-पर को कहने की ताकत है। निमित्त की अपेक्षा होवे तो स्व-पर को कहने की ताकत कहाँ रही ? समझ में आया ? भाई ! केवलज्ञान निमित्त है न, इसलिए भाषा में ताकत आयी ( - ऐसा ) बिल्कुल नहीं है । आहा... हा...! समझ में आया ?
मुमुक्षु : यह तो सूचित करता है केवलज्ञान ।
उत्तर : वह तो केवलज्ञान सूचित करता है परन्तु केवलज्ञान है, इसलिए भाषा में, दिव्यध्वनि में स्व- पर वार्ता कहने की पूर्ण ताकत ऐसा बिलकुल नहीं है । आहा... हा...!