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गाथा - ८२
से लाते हैं न ? अपने पुत्र का विवाह होवे तो लाते हैं, घर में रखते हैं; क्या उसे अपनी पूँजी में गिनते हैं ? घर में पुत्र का कोई विवाह आदि का प्रसङ्ग हो और (कोई चीज ) लावे, पाँच हजार-दस हजार का गहना ले आवे तो उसे अपनी पूँजी में गिनते हैं ?
मुमुक्षु : वह माँगकर लाये हैं ?
उत्तर : यह (भी) माँगकर, मँगनी का है; आत्मा में है नहीं । आहा... हा... ! गहना माँगकर मँगनी का (लाये हैं), आगन्तुक है विकार - अपनी पर्याय में पुण्य और पाप के भाव होते हैं, वे आगन्तुक हैं, मेहमान है, स्थायी चीज नहीं है । आहा... हा... ! समझ में आया ? माँगीलालजी ! यह त्यागी... । आहा... हा...!
मुमुक्षु : किसके (त्यागी) ?
उत्तर : राग के। अपना शुद्ध चैतन्यस्वरूप, मेरा पूर्णानन्दस्वभाव है – ऐसी धर्मी की दृष्टि हुई है। धर्मी की दृष्टि ऐसी होती है कि मैं तो शुद्ध ज्ञायक और आनन्द हूँ । मुझ में इस राग और परमाणु का कोई सम्बन्ध नहीं है और दूसरे आत्मा के साथ भी मुझे सम्बन्ध नहीं है। समझ में आया ?
न धर्म, अधर्म, आकाश और कालद्रव्य के साथ है। न तो मुझमें आठ कर्म हैं न शरीरादि है... अभी, हाँ ! न रागादि भाव है न मुझमें इन्द्रिय के विषयों की अभिलाषा है । देखो ! इन्द्रिय के सुख की अभिलाषा, सुखबुद्धि से होवे तो मिथ्यादृष्टि है । इन्द्रियाँ - पाँच इन्द्रियों के विषयों में सुखबुद्धि की अभिलाषा मिथ्यादृष्टि को होती है। ज्ञानी को किञ्चित् राग आता है परन्तु उसमें सुखबुद्धि नहीं, अभिलाषा नहीं, कि सुख है और उस सुख को मैं भोगूँ, धर्मी को ऐसा भाव (सुखबुद्धि नहीं है) । इन्द्रिय के विषयसुख में सुखबुद्धि का त्याग है। समझ में आया ? लो ! यह त्याग हुआ या नहीं ? देखो !
न मुझमें इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा है न मैं इन्द्रिय सुख को सुख जानता हूँ। सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ? अपने में आनन्द है, आत्मा में आनन्द है, वही मेरी चीज है। समझ में आया ? यह आगे (गाथा - ८५ में) आयेगा । 'जहाँ चेतन वहाँ अनन्त गुण केवली बोले एम।' फिर आयेगा केवली भगवान सर्वज्ञ परमेश्वर ऐसा कहते हैं कि जहाँ चैतन्य, चैतन्य चैतन्य, ज्ञायक ज्ञायक भाव से आत्मा है, वहाँ सभी अनन्त गुण हैं ।