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वीर संवत २४९२, आषाढ़ कृष्ण ७, गाथा ८२ से ८३
रविवार, दिनाङ्क १०-०७-१९६६ प्रवचन नं. ३१
परभावों का त्याग ही संन्यास है। त्याग, त्याग । आत्मा में परभावों का त्याग, उसका नाम संन्यास कहो या त्याग कहो या उनका स्वभाव में अभाव है (ऐसा कहो ) । सर्व विकार, पुण्य-पाप का आत्मा में अभाव है। ऐसे आत्मा में दृष्टि होने से आत्मा में विकार का त्याग हुआ। कोई कहता है न कि चौथे गुणस्थान में (विकार का) त्याग नहीं है, सम्यग्दर्शन में त्याग नहीं है। (यहाँ पर) त्याग आया, देखो ! जो परयाणइ अप्प परु, सो परु चयइ णिभंतु जो कोई आत्मा अपने आत्मा का स्वरूप शुद्ध आनन्द है, पर का स्वरूप, विकार और पर अजीव आदि है - ऐसा दोनों का भेदज्ञान जानता है, वह पर को दृष्टि में से छोड़ता है । दृष्टि में से छोड़ता है - परयाणइ । वह आदर नहीं करता । धर्मी जीव, अपना शुद्धस्वरूप आनन्द है, उसका आदर करता है और विकार तथा संयोग का आदर नहीं करता। आदर नहीं करता इसका अर्थ, इसका संन्यास हुआ, दृष्टि में उसका त्याग हुआ। समझ में आया ?
यहाँ यह आया, देखो! धर्मी जीव विचारता है । मेरा कोई सम्बन्ध न अन्य आत्माओं के साथ है, न पुद्गल के किसी परमाणु या स्कन्ध के साथ है । आत्मा है आत्मा, वह तो शुद्ध अरूपी आनन्दघन आत्मा है - ऐसे आत्मा की दृष्टि करनेवाला (विचार करता है कि ) मेरा पर के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । अन्य आत्माओं के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, न पुद्गल के एक रजकण या स्कन्ध / पिण्ड के साथ भी मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है । इस सम्यग्दर्शन के काल में (विचारता है) है तो तीनों काल (अभाव) । आत्मा में विकार और पर का त्रिकाल अभाव है परन्तु दृष्टि में आया, तब वर्तमान पर का त्याग दृष्टि में हो गया। कहो, समझ में आया ? ठीक है ? किसी की चीज लाते हैं, बाहर