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गाथा-८२
में त्रिकाल शुद्धभाव, अनन्त शुद्धभाव है, वह मेरा भाव है। वर्तमान निर्मलदशा है, वह मेरा काल है। मेरा असंख्य प्रदेशी क्षेत्र, अभेद द्रव्यस्वरूप मैं द्रव्य-पदार्थ हूँ। आहा...हा...!
मैं सिद्ध समान शुद्ध निरंजन निर्विकार हूँ, मैं पूर्ण ज्ञान-दर्शनवान हूँ... ऐसा सम्यग्दृष्टि अपने में मानता है। मैं अपूर्ण ज्ञानवाला हूँ – ऐसा नहीं तो फिर रागवाला हूँ और पैसावाला हूँ, यह तो सम्यग्दृष्टि मानता ही नहीं। धर्मी सम्यग्दृष्टि अपने को पूर्ण ज्ञान-दर्शनवान, पूर्ण आत्मवीर्य का धनी मानता है, सिद्ध समान निर्विकार शुद्ध मानता है। वह अपूर्ण पर्याय, रागादि, उसका बन्ध, उसका बाह्य संयोग, उसका स्वामी ज्ञानी नहीं होता। इस अपेक्षा से उसे पर का संन्यास है। समझ में आया?
परम आनन्दमय अमृत का अगाध सागर हूँ। आहा...हा... ! बड़ा समुद्र होता है न? दरिया, समुद्र । अगाध... अगाध... अगाध... नीचे मोती पड़े होते हैं परन्तु कहाँ (मिलें)? अगाध... ऐसे भगवान आत्मा अरूपी आनन्द सागर अगाध, आनन्द सागर अगाध, अगाध, अगाध, अगाध... अचिन्त्य, अकृत्रिम मेरा स्वभाव अगाध है। उस अमृत का अगाध सागर हूँ। मैं परम कृतकृत्य हूँ।लो, दृष्टि की अपेक्षा से समकिती परम कृतकृत्य हूँ और जीवन्मुक्त हूँ। आहा...हा...! चौथा गुणस्थान, यह सम्यग्दर्शन की बात चलती है। इस अपेक्षा से उसे पर का त्याग-संन्यास दृष्टि की अपेक्षा से कहा जाता है। उसे सच्चा संन्यासी कहते हैं।
विशेष कहेंगे... (श्रोता : प्रमाण वचन गुरुदेव)
Natara CAWLWIT
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